झूठी ही सही, तेरी प्रीत रहने दे।
दिन तो गुज़र गया, आंखें पढ़ कर,
इस रात को, खामोश ही रहने दे।
यूं तो सूनी ही रहतीं हैं, आंखें तेरी,
आंसुओं को, अपनी बात कहने दे।
कभी धड़कनें भी, समझ लिया कर,
या ख़ामोशी को ही कुछ कहने दे।
न कर इज़हार अपनी मोहब्बत का,
दिल की तड़प को भी कुछ कहने दे।
मत मांग सबूत, मेरी वफादारी का,
मेरी उदासियां को भी, कुछ कहने दे।
रो नहीं सकता, तुझे देख कर आवारा,
अब, मेरी आंखों को ही कुछ कहने दे।
अजय "आवारा"
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कविता