तेवरी...
हर तन अब तो जलता भाई
मोम सरीखा गलता है |
दिन अनुबंधित अंधकार से
सूरज कहाँ निकलता है |
अब गुलाब भी इस माटी में
कहाँ फूलता-फलता है |
देनी है तो अब रोटी दे
नारों से क्यों छलता है |
यह ज़मीन कैसी ज़मीन है
सबका पाँव फिसलता है |
*+रमेशराज*
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मुक्तक