नकाब सोच का

शीर्षक - *नक़ाब सोच का* 

यहां हर इंसान का अपना हिसाब है 

 समय-समय पर बदलता नकाब है

अपने हर गुनाह पर पर्दे की रकाब है

सरेआम कहता है कि जमाना खराब है

बेटी अपनी है तो अश्क ए गुलाब है

परायी बेटी है तो हुस्न ए शबाब है

वेष भूषा हाव भाव जैसे नवाब हैं  

अंतर्मन उतने ही गन्दे ख़राब हैं

स्वर्ण कलश में जैसे भरी शराब है 

तन मन में भोग भरी ख्वाब है

सोच बदलो कर्म बदलो सच्चे बनो जनाब

परिवेश तभी बदल सकेगा जब होगा सत्य जवाब

         🙏  जय हिंद  🙏

       चंन्द्र प्रकाश गुप्त "चंन्द्र"
       अहमदाबाद , गुजरात
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मैं चंन्द्र प्रकाश गुप्त चंन्द्र अहमदाबाद गुजरात घोषणा करता हूं कि उपरोक्त रचना मेरी स्वरचित मौलिक एवं अप्रकाशित है 
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