सिमटी टाटपट्टी
सिमटी टाटपट्टी
किनारे में
अपने को समेटे जीर्णावस्था में
पुरानी हो गयी है।
असंख्य तारो ने ,सुकुमारों ने
अंक में बैठे ; पैरों में रौंदे
न निकली आह! न आवाज
रुदन से कोशों दूर
आज भी है सिमटी टाटपट्टी।
स्वागत ; अभिनंदन हो
दुःख बेला का कर्म हो
मधुर शहनाई बजती बेला हो
आँगन मध्य में शोभा बनी
रंगीन गुँथी टाटपट्टी।
विद्या भवन की है दुपट्टा
वात्सल्यता लुटाती टाटपट्टी
अब
रेशे जीर्ण हो चुके हैं,
रूप परिवर्तित हो चुके हैं,
अवस्था हो गयी ढीली
लोगों ने सुंदरता की चाहत में
विकल्प तलाश लिया
किनारे रख दिया;
अब शांत ! निर्मोह! स्थिर !
बैठी है सिमटी टाटपट्टी।
भूल गए
या कृतघ्नता !
शायद यही प्रकृति है ;
किन्तु
मौन ही शक्ति
सब निहार रही
उपयोग आने
लोगों के मध्य गुण बखाने
उतावलापन लिए
इंतजार करती
कोने में सिमटी है टाटपट्टी।
- विजय पंडा
छत्तीसगढ़
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कविता