माँ के आँचल में लिपटा हुआ वो बदन।
खो रहा है धीरे-धीरे वो प्यारा बचपन ।
बारीश के पानी में वो कागज की नैया
करें पाँव जी भर के छू छपर छप छैया
कलाई पकड़ के खुब नचाता था भैया
रात भर जाग लोरिया सुनाती थी मैया
जीभर के पिलाता था वो अमृत स्तन ।
खो रहा है धीरे-धीरे वो प्यारा बचपन ।
किताब का बोझ और पढ़ाई की मार
पिताजी का सपना करो बड़ा व्यापार
ये सोच सोच कर बच्चे हुए तब बिमार
हो गया नन्ही उम्र डिप्रेशन का शिकार
ना करते है पापा भी अब मेरा बड़प्पन ।
खो रहा है धीरे-धीरे वो प्यारा बचपन ।
दोस्तो संग करते थे खुब हँसी ठिठोली
वो प्यारी प्यारी और तोतली सी बोली
न नफरते किसी से सब थे ऐसे भोली
करते हाथापाई और तुरंत हमजोली
जाने कहाँ सिमटा वो सारा लड़कपन ।
खो रहा है धीरे-धीरे वो प्यारा बचपन।
धुल से लिपटे लिपटे ही भूख जताना
ना मिले अगर भोजन तो रूठ जाना
पड़ता था सबको फिर नाज उठाना
माँ के हक में शामिल मुझको खिलाना
अब रहा न रूठने मनाने का प्रचलन ।
खो रहा है धीरे-धीरे वो प्यारा बचपन।
पूनम यादव,वैशाली से
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कविता