रोज सजने संवरने को
दर्पण के समाने आते हो।
देख कर तेरा ये रूप
दर्पण खुद शरमा जाता हैं।।
रोज बन संवरकर तुम
घर से जब निकलते हो।
देख कर कुंवारे लड़के
बहुत शरमा जाते हैं।।
अपने आँखो से तुम
जब निगाहें घूमाती हो।
तब कुवारों का दिल
डग मगा ने लगता है।।
हँसते हुए चेहरे पर
जब चश्मा लगाती हो।
देखकर ये अदाये तेरी
लड़को की आँखे सरमाती है।
होठों की तेरी लाली
तेरे चेहरे पर खिलती हैं।
बोलती हो तुम कुछ भी
मानो फूल झड़ रहे हो जैसे।
खूबसूरती में तुम मेनिका
जैसी सुंदर लगती हो।
तभी तो विश्वामित्रों की
तपस्या भंग हो जाती हैं।।
जिस पर भी तुम अपना
ये हुस्न लूटाओगी।
उसको साक्षात जन्नत
जिंदगी में मिल जायेगी।।
जय जिनेंद्र देव
संजय जैन मुंबई
18/03/2021
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कविता