जो अंतर्मन में रहे महकती
तो मैं विरह का सारा विष
मधुर, मदिर, मय, मान
घूँट घूँट पी लूँ, हंस हंस के जी लूँ
मिलन की ज्वार भाटे सी लहर
मन के सागर में उठती गिरती हैं
किंतु मर्यादा की चेतना, मौन रह
करो प्रतिक्षा कह, समझाती है
पीड़ा का अभिसार प्रणय से
प्रकृति का शाश्वत सत्य है
पर ढ़ाढ़स के बोल की आस मे
• पाटल से अधरो को सी लूँ
हंस हंस के जी लूँ,
जीवन की गोधूलि में ,अनजाने ही
राहों मे ,धूमायित सा साथ दिया
प्रेम की वीणा का सुप्त तार
• समानि के स्वर - सा गूंज उठा
किंतु परंपरा की वीथी में ,
समिधा बन कर जलना होगा
जल जल कर ख़ाक बनूँ पर
तप कर स्वर्ण बन निखर लूँ
हंस हंस के जी लूँ
रजनी गंधा सी याद तुम्हारी
जो अंतर्मन में रहे महकती
तो मैं विरह का सारा विष
मधुर, मदिर, मय, मान
घूँट घूँट पी लूँ, हंस हंस के जी लूँ
स्वर्णा ज्योति
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शब्दार्थ
• पाटल - गुलाब
• सामानि - ऋग्वेद के मंत्रों को ऋचा और यजुर्वेद के मंत्रों को यजूँषि कहते हैं । सामवेद के मंत्रों को सामानि कहते हैं। सामवेद के मन्त्र गाये जा सकते हैं और जो संगीतमय होते है।
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कविता