कैसे कहूं मैं
अंतर्मन में पीड़ा को छुपाएं
सपने सजाती
औरों पर
अपार स्नेह लुटाती
स्वयं प्रेम की प्यासी फिरती
एक नारी की व्यथा को
एक नारी ही समझती
उठो! अबला
चेतनाप्रकाश है तुम्हारे जीवन में
बदल दो!
और दिखला दो ! उन्हें भी!
कुछ कर गुजरने की
क्षमता हममें भी है
आत्मनिर्भर बनो!
सम्मान की जिंदगी जीना सीखो!
पढ़ो! स्वयं बदलो! औरों को भी बदलो!
सिसकियां बहाने का वक्त नहीं
नवपथ निष्पलक नेत्रों से तुम्हें देख रहा
निकलो ! घर से बाहर
अपनी अस्मिता को पहचानो
हर नारी की कहानी एक जैसी ही लगती।
(मौलिक रचना)
चेतना चितेरी , प्रयागराज
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कविता