पत्रकारों की कलम
इन पत्रकारों की कलम से पुरी दुनिया डरती है ।
आज ये बात तो सिर्फ पन्नों में बंद दिख रहा है ।
आज वास्तव में मेरे देश के पत्रकार
चंद पैसों की खातिर हाथों-हाथ बिक रहा है।
झुठ की दिवार को धराशायी कर दे
इतना दम उनके हुंकारो में नही है।
सच के साथ खड़ा होने का दुस्साहस
अब इन पत्रकारों में नही है।
ये चाटुकारों के गिरवी बने
सच को मिटाने की ताने बुनते है।
चंद पैसो के खातिर बिके ये लोग
जनता की कहाँ सुनते है।
हाथो में कलमें जरूर पर इनकी जमीर
इन्हें मजबूर कर दी तलवे चाटने को ।
हमारे देश के यही लोग चंद पैसों के
खातिर तैयार है पुरा मुल्क बांटने कों।
पैसों के खातिर झुक गये कलम
ये सवाल भारत की संस्कृति पे उठ रहा है।
ये मेरे देश के रहनुमाओं तेरे जीते जी
पुरा का पुरा मुल्क लुट रहा है ।
ये पत्रकारिता तो एक आवाज थी
सच को शीर्ष तक पहुँचाने का।
आज एक साधन बन चुका है
सिर्फ और सिर्फ पैसा कमाने का।
मौका मिलते ही लुट लेता अस्मत अपने माता का।
कैसे कहूँ ये सब रक्षक है भारत के भाग्य विधाता का।
आज गीदड़ की टोली शामिल है सिहों की परिभाषा में ।
क्योंकि पत्रकारों के कलम चले गये गद्दारों के झाँसा में।
पूनम यादव, वैशाली (बिहार )
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कविता