पीड़ा उन सात दिनों की


पीड़ा उन सात दिनों की
नारी खूब है सहती
पीड़ा आऐ तो ये दुनिया 
नारी को ही अपवित्र कहती।।

समाज मे आज भी पीड़ा आने पर
घर के लोग घृणा संग देख जाते।
क्या कसूर प्राकृतिक पीड़ा पर उसके संग
अछूत सा व्यवहार कर जाते।।

रसोई मे आने पर कहते सब 
अपवित्र हो जाता
जमीन पे सुलाते उसको ये कैसा
समाज भ्रम फैलाता।।

इसी पीड़ा के संचय से ही
घर का चीराग है आता
यही पीड़ा ही तो एक मर्द को 
पिता बनने का गौरव दिलाता।।

क्यों आखिर नारी को अपवित्र
कह कठोर तप कराया जाता
दवा,अपने पन की जब जरूरत
 तब उसका बहिष्कार किया जाता।।

वीना आडवानी"तन्वी"
नागपुर, महाराष्ट्र
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