संवेदनाओं के ही
नाम पर संवेदनाओं
का कतल सरेआम
होते देखा।
मानवता की
संवेदनाएं जैसे मर सी
गई हैं,संवेदनाओं
के ठेकेदार बने लोगों
को संवेदनाओं पर
चर्चा करते देखा।
खेलों की बिसातों
पर षडयंत्रों से
अपना बन जग
को छलते देखा।
साथियों के ही कष्टों
की दुआ मांगते,
सज्जनों को शिखर
पर चढ़ते देखा।
हमदर्दी की आड़ में वाह हमदर्दों,क्या-क्या न
करते तुमको देखा।
अब बस भी करो
जगत के दोगलों,
दोहरा चरित्र
जग ने आंखों
से देखा।
रजनी वर्मा
भोपाल
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कविता