नए समय की नई नारी हूं मैं ,
अबला नही न ही बेचारी हूं मैं ,
सभ्यता और संस्कृति से जुड़ी हूं
माता हूं ,बहिन ,बीबी ,बेटी भी हूं !
समाज से बेहतर है अब सोच मेरी
पुराने रिवाजों की बेड़ियां काट के
नई दिशा की ओर पग रख रही हूं !
आयाम नए चुन रही हूं हर पहर में,
अपने भविष्य की खुद जिमेदारी हूं में ।।
नए दृश्य रोज नए अनुभव हो रहे
हर पल बदल रहा है यह जीवन
कंधे से कंधा मिलाकर चल रही हूं
पुरुष प्रधान इस समाज में उभरती
हुई स्त्री की एक नई पहचान हूं मैं !
" नारी हूं मैं " इस नाम की शक्ति से
भली भांति परिचित हो रही हूं अब
अपने इरादों पे अटल चट्टान की तरह,
अपने भविष्य की खुद जिम्मेदार हूं मैं ।।
प्रतिभा दुबे (स्वतंत्र लेखिका)
महाराज बाड़ा मध्य प्रदेश (ग्वालियर)
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कविता