ये सृष्टि भी हैं बड़ी ही निराली।
कहीं बर्फ तो कहीं गिरता है बारिश का पानी।
लेकिन जब हमने पर्वत प्रदेश का देखा नजारा।
ऐसा लगा जैसे यहां ईश्वर बसा हो हमारा।
देखते ही देखते पर्वत पर बादल छा गए।
मानो वे एक-दूजे के आगोश में समा गए।
कुछ पल के लिए मन ऐसे बेचैन हो गया।
जैसे बादल भी पर्वत को उड़ा ले गया।
पल भर में यहां छा गया घना अंधेरा।
के बादल भी सूरज से आंख मिचौली खेलने लगा।
यहां तो दूर दूर तक पर्वतों का डेरा हैं।
शायद यहां होता सुनहरा सवेरा हैं।
पंछियों की चहक ऐसी के कोई गा रहा हो गीत।
ब्रम्हांड भी पुकारने लगा हो गीत सुनकर अपने मीत।
जब पर्वतों से झरनों की सुनाई देती हैं आवाज़।
लगता हैं मधुर संगीत की यहीं से हुई हो आगाज़।
भूल नहीं पाएंगे हर पल ये देता रहेगा संदेश।
के शायद यही हैं मनभावन पावन पर्वत प्रदेश।
"बाबू' किस्मत से हम पहुंचे थे तब थी पावस ऋतु।
लगा दूं अपना भी यहां ढेरा ना कभी मैं वापस जाऊं।
✍️ बाबू भंडारी "हमनवा" बल्लारपुर
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कविता