प्रवासी मज़दूर कि आत्मपीड़ा

प्रवासी_मज़दूर_की_आत्मपिड़ा

मजदूरों के बेबसी का आलम

दर-बदर हालात है

भूखे-नंगे पाँव और धुप से सूखता कंठ

वह कहता मनुष्य का स्वभाव है

किसने कहा कि घर से निकलो

पर ;

वह भुल गया कि इन हालातों का

कसुरवार कौन है


असंवेदनशीलता और कुव्यवस्था का

प्रतीक

अब मौन है

अब भी अच्छे दिनों की तलाश में घर से

बेखबर

प्रवासी मज़दूर है

चलता ;रुकता ;कराहता मंज़िल के

तलाश में

बंदिशे ऐसी की मंज़िल के पास होकर भी

भटकता

ना उसे बुलेट ट्रेन चाहिए और ना ही

राजधानी

उसे तो बस वही पुराने दौर की लोकल

ट्रेन ही चाहिए

राजधानी उसे कहाँ नसीब

उसके रकीब में

उम्मीदों के सफ़र में वह मस्त पैदल ही

निकल पड़ा

शर्म की हदें अब वह कर गये पार जिसे

उसने चुना उसे बनाया


लानत है उसके ओछी मानसिकता पर

चलाता राजधानी ट्रेन है

©️🖋कमलेश कुमार गुप्ता (बिहार,गोपालगंज )

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