सहमे सहमे से है रास्ते मंजिल बहुत दूर है
तीन पहियों पर चलता जीवन कितना मजबूर है
बख्शी है जिसने मुझे यह जिंदगी पूछता हूँ
क्या वह भी मेरी की तरह ही बहुत मजबूर है
सहमे सहमे से है रास्ते मंजिल बहुत दूर है
अपना पेट ठीक से नहीं पलता बड़ा परिवार है
छः महीने काट दिया यहाँ कहाँ मेरा घरबार है
याद आती है बच्चों की दिल कितना मजबूर है
सहमे सहमे से है रास्ते मंजिल बहुत दूर है
तीन पहियों पर चलता जीवन कितना मजबूर है
चंद सिक्कों के लिए खुद को झोंक देता है
वह अंदर ही अंदर टूट टूटकर बार बार रोता है
एक टूटी - फूटी सी रिक्शा और सपने हजार हैं
बचत नहीं उतनी और जाना भी जरूर है
सहमे सहमे से है रास्ते मंजिल बहुत दूर है
तीन पहियों पर चलता जीवन कितना मजबूर है
✍महेश राठोर सोनु
मुजफ्फरनगर
उत्तरप्रदेश
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कविता