*विधा- ख़्याल/कविता*
बहुत हमकों सताया है के अब हम थक के बैठे हैं
बहुत हमको रुलाया है के अब हम थक के बैठे हैं
कभी देखा नही रुपया के मिला हरदम ही घाटा है
बहुत क़ीमत बढ़ाया है के अब हम थक के बैठे हैं
कभी ओलावृष्टि कभी भूमि अधिग्रहण का धोखा
सदा हमकों दबाया है के अब हम थक के बैठे हैं
तपकर दिन रात खेतों में करें जी तोड़कर मेहनत
तन अपना गलाया है के अब हम थक के बैठे हैं
मरे बेमौत घुट घुटकर के अब छुपकर नही मरना
हमकों कायर बनाया है के अब हम थक के बैठे हैं
ओ टोपी वालों सुनो खोलो जरा तुम कान के पर्दे
सचिन धरना लगाया है के अब हम थक के बैठे हैं
© सचिन गोयल
शास्त्री नगर गन्नौर
सोनीपत हरियाणा
IG, burning_tears_797
Tags:
कविता