मेरा शहर- -
भावनाओं से लिखता हूँ मैं सृजन के गीत यहाँ
पढ़ने वाला शहर में कोई बेरोजगार मिला नही !
लिहाफ ओढ़ ठंड में भी जल रहे हैं लोग
शाँत कर सके यहाँ कोई नहर बहता नही!
एकता की बात पर मिशाल बन दम्भ भरते हैं वो
परिवारों के साथ जमीं पर जो कभी बैठे ही नही !
भटक गए हैं राहों से युवा, लड़खड़ाते चल रहे
साथ चल राह दिखाने वाला कोई राहगीर नही !
अंधे होकर पत्थरों पर चलना पसंद है उन्हें जो
सूरज की रोशनी से भी आँख खुलता ही नही !
कुकुरमुत्ते उग आए हैं देखो! खेतों खलिहानों में
शायद अच्छी फसल की जरूरत अब है ही नही !
आत्म मुग्धता से शहर में खुश हैं चंद चुनिंदे
तिरछी नजरों को शायद उन्होंने देखा नही !
आज उनकी ईमारत भी मजबूत हो चली है
जिनकी बुनियाद में पत्थर डाले गए ही नही !
ऊँचे बताने की मची है मेरे शहर में प्रतिस्पर्धा
कद इनकी मापें पैमाने की जरूरत ही नही !
भुजंगों की तरह इठलाने दो भी जमीं पर इन्हें
नजर इन पर दौड़ाने की शहर में आदत नही !
विजय पंडा रायगढ़ छ0ग0
मो0 9893230736
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कविता