नारी एक रूप अनेक
नारी कोई अबला नादान नहीं है दबी इसकी पहचान नहीं है
नारी एक मेरे रूप अनेक कौन जो करता इसका मान नहीं है
स्वाभिमान से सर उठा जीती है खुद्दारी अपने अंदर रखती है
पुरुष समाज में अपना लोहा मनवाती है लेती कोई एहसान नहीं है
मर्दों वाले काम भी कर जाये मज़ाल किसी से कभी हर जाये
पाँव चाँद धरती है कौन कहे चला सकती आन्तरयाण नहीं है
प्रेम करुणा का सागर शक्ति की गागर ममता का आँचल
दिल में सिमटाए कितने ग़म फिर भी करती गुणगान नहीं है
तू अन्नपूर्णा तू मां काली है तू ही दुर्गा रूप तू ही है ब्राह्मणी
बन यशोदा कृष्ण पाला बन गौरी शिव संभाला करती मान नहीं है
सीमा से हिमालय तक है खेल मैदानों तक है लेखक और कवित्री
माता बहन पुत्री पत्नी अपने भुजबल पर जी करती अभिमान नहीं है
माया ममता महबूबा बन जाती राजनीति के रंग में रंग जाती
नेता भी सर झुकाये कौन सी जगह जहाँ होता तेरा सम्मान नहीं है
सजग सचेत सबल समर्थ आधुनिक नारी है सक्षम है बलधारी है
ऊँचे पद पर बैठी अधिकारी कहो या घर ओ वतन की जान नहीं है
डॉ गुरिंदर गिल
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कविता