सोंचता ही रहा जिन्दगी भर सदा

सोंचता ही रहा जिन्दगी भर सदा
           हर महफिल में मेरी लगी साख है
क्या बचाउँ बनाऊं मैं संचित करुँ
          कुछ बचा ही नहीं राख ही राख है
डोली सजा  कर  चले  सब  सगे 
            कुछ आगे चले  कुछ  पीछे  लगे
जिस घर को बनाता रहा मैं सदा
        आज माटी में उसका मिला पाख है
क्या बचाउं बनाऊं मैं संचित करुँ
          कुछ बचा ही नहीं राख ही राख है
ये आज कैसी अजब सी बारात है
           सुर्य निकला  नहीं  रात ही रात है
कोई हंसता नहींं है ठहाकों के संग
             न  जाने  अएसी   क्या  बात  है 
क्या बचाउँ बनाऊं मैं संचित करुँ 
          कुछ बचा ही नहीं राख ही राख है
जिन्दगी ने मुझे अलबिदा कह दिया
        मौत स्वागत का थाल सजाये खडी
यमदूतों से अब है हुआ सामना 
         मिलेगी  नही  अब  घडी  दो  घडी
रो रहे हैं सुबक कर मेरे वो सगे
        जिनको भर जिन्दगी डांटता मैं रहा
आज संग हैं उसी बृक्ष की डालियां
       जिनको भर जिन्दगी काटता मैं रहा
मैं  हूँ  दूल्हा  बना  ये  बराती  मेरे
         आज मित्रों की मेरे  नम  आँख  है
क्या बचाउँ बनाऊं मैं संचित करुँ
          कुछ बचा ही नहीं राख ही राख है
शोलों में घिरकर  बदन  ये  जला 
          कोई कैसे बचाता मुझे फिर भला
मेरी अकड और पकड सब जली
          छोड तनहा मुझे भीड भी है चली
शान्त शोले हुए  भस्म  मेरी  उड़ी
           आत्मा  मेरी  जा  प्रभू  से  जुडी
मिल  गया  हूँ  मैं  अब  राम  में
             कलश में भरी अब मेरी राख है
क्या बचाउँ बनाऊं मैं संचित करुँ
         कुछ बचा ही नहीं राख ही राख है

उदय बीर सिंह गौर 
खम्हौरा 
बांदा 
उत्तर प्रदेश

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