यह कंचन सी मिट्टी का पुतला ढला है।।
उड़े जा रहें हैं सहजवास में वो,
हवा में, फिजा में, दुआ मे, वफा में,
ह्रदय में बसाकर चला जा रहा है,
नहीं आवरण है नही धारणा है,
महज बस हमारी प्रभु अर्चना हैं,
निमंत्रण है आया हॉ शिव ने बुलाया,
बिछा जा रहा है हुईं धुंधली माया,
निकल शाश्वत तन बिचरने चला है।
चला जीव ब्रह्म से मिलने चला है।।१
अचंमभित, अलौकिक दिखे ये नजारे,
सभी कह रहे सुन कि हम है तुम्हारे,
वो सत्य ही शिव है वहीं सुंदरम् है,
वो शक्ति की आभा को मेरा नमन है,
उतरके तरंगों में वो खिलखिलाना,
प्रभु के चरण में वो शीश नवाना,
वो गहरे से पानी में निज को लखाना,
वो मन की मछलियों को दाना चुगाना,
सृजन अब समाहित यूँ होने चला है।
चला जीव ब्रह्म से मिलने चला है।।२
जटाओं में खुद को समाहित किया है,
लहर शेष में फिर प्रवाहित किया है,
विरक्ति में अनुरक्ति को ढूँढ पाया,
गुफा का खुला द्वार उसमें समाया,
कबूतर की जोड़ी ने अमरत्व पाया,
चले द्वैत के संग फिर एकल चलाया,
प्रकाशित हुई बिंदु में ज्योत उसकी,
चतुर्दिक दिखी श्वेत आभा सी उसकी,
निलय नील में यूँ हॉ खिलने चला है।
चला जीव ब्रह्म से मिलने चला है।।३
चढ़ा जीव दुर्गम, शिव की शिखर पे,
टिकी जा रही है नजर उस नजर पे,
वो मंथन सा होने लगा हर नमन में,
चढ़ाते रहे निज को क्षण क्षण सुमन में,
पलक दर्श बर्फीले शिव ने कराया,
दिया दिव्य दर्शन गरल सब हटाया,
नयन हो सजल फिर बही गंग धारा,
प्रबल वेदना, जीव ने फिर पुकारा,
अमर आत्मा शिव को बनने चला है,
शिवोहम शिवोहम वो कहने लगा है।
चला जीव ब्रह्म से मिलने चला है।।४
पलक जैन
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कविता