भूल ही क्यों अक्सर गुनाह भी हो जाते है जाने तो कभी जाने अनजाने में
मैंने भी किया है इश्क़ गुनाह ही तो है देखो जो उतर के दिल के तहखाने में
कुछ आंसू कुछ दुःख दर्द आह बांटी थी मैंने भी खता ए उल्फत के गुनाह में
जब मेरे हिस्से में आया है यह सब तो हुयी खबर क्या खता की दिल दीवाने ने
चला मुक़दमा ए इश्क़ तो न मिली रिहाई कज़ा न ताउम्र दिल में कैद रहने की सजा
रंग गहरा चढ़ता रहा वो इश्क़ को दिल्लगी समझता रहा न माहिर थे समझाने में
वह चाँद की माफिक दूर भी है गरूर भी है आँखों का नूर भी और मेरा हुज़ूर भी है
यह सोचा न था कभी रोना होगा आंसू भी छुपाने होंगे इस इश्क़ के अफ़साने में
ज़ख़्म भरने लगे है आना आकर हवा देना तुम क़तल के बाद न भूल जाना तुम
बनाकर बहाना कोई आ जाना कबर पर मेरी तुम तो माहिर हो न बहाना बनाने में
इश्क़ खेल नहीं है मेल है दो रूहों का ,गुनाह हमारा खता हमारी हमने जो इश्क़ किया
तुमने तमाशा बना दिया मेरी तमनाओं का क्यों आ गया दिल तेरे बहलाने -फुसलाने में
मोहबत नहीं हमने की इबादत है तुम निकले बनावटी रंग है तुझमें सारे बनावट के
पत्थर दिल में इश्क़ की चाहत कहाँ से आती, तुम तो लगे होंगे मेरी यादों को दफनाने में
मज़बूरी में लोग बटोरते रहते है तेरे जैसे चार किताबें पड़ने वाले जो इलम बांटते फिरते है
खुद मरते है लोगों को मारते है अच्छा है कलंदर हो जाओ क्या रखा है कर गुनाह गंगा नहाने में
खुश हूँ मैं क्योंकि खुश हो तुम वर्ना तुम बिन साँस लेना गुनाह ए अज़ीम हो जाता मुझसे
किसको दोष दूँ मैं दिल दिमाग निगाहें तीनो शामिल है मुझे तेरे इश्क़ का गुनेहगार बनाने में
चलो तेरी ख़ुशी के लिए ये गुनाह करते है सज़ा तो दे दी है तेरे इश्क़ में खुद को फनाह करते है
इश्क़ मुक्कमल न हुआ न सही चलो खुद को कैद करते है कयामत तक इसी मुसाफिरखाने में
Tags:
कविता