प्रकृति की अनुपम छटा मेरे गांव में

प्रकृति की अनुपम छटा
            मेरे गांव में

प्रकृति की अनुपम छटा मेरे गांव में
 याद आ रही है मुझे !अपने गांव की
ले चल मुझे! उसकी गोद में
कोलाहल से दूर पीपल की छांव में
सुकून के पल बिता लूं अपनों के बीच में 
 प्रकृति की अनुपम छटा मेरे गांव में 

जहां प्यारा – सा आयताकार में घर है हमारा
बड़े-बड़े कमरे बड़े बरामदे बड़ा– सा आंगन
मेरे द्वार की शोभा बढ़ाता है
और सब की मीठे पानी से प्यास बुझाता 
जिसको अंग्रेजी में कहते हैं वेल
पर, मुझे कुआं कहना ही भाता
 सदन के सामने द्वार से लगा
 छ: बीघे आम की  मीठी बगिया
आंख बंद करके खाऊं लगे न खट्टा
मेरी इसी बगिया में  द्वार के सामने प्यारा – सा शिवालय
जिसमें मेरी चाची माला जाप किया करती थीं
दूसरे छोर हरा– भरा खेत  उससे लगा तालाब
सुबह –शाम देखते ही बनता
 प्रकृति की अनुपम छटा मेरे गांव में
ले चल मुझे! गांव की ओर

सोचती हूं कभी-कभी
मेरा घर हम सब का गांव
बसती थीं हम सबके प्राण उसमें
हम सब की आवाजें गूंजती थीं कोने –कोने
हम सब मिलकर पले  बढ़े जिसमें
आज भी ! अकेली !
बाट जोहती  है हम सबके आने की
कुछ भी कमी ना है फिर भी लगता है मुझको!
पश्चात संस्कृति की हवा ने बिखेर दिया हम सबको
घूम आती हूं देश-विदेश
क्षणिक  ही मुझे अच्छा! लगता 
पर,
 जो आनंद  झरोखेदार  मड़हा  में एकसाथ हम सबको मिलता
हंसते हंसते लोट–पोट हो जाते
 वह पीवीआर में कहां ?
 प्रकृति की अनुपम छटा मेरे गांव में
ले चल मेरे नाथ! मुझे गांव की ओर
मेरा गांव है बहुत सुंदर।
(स्वरचित)
चेतना चितेरी, प्रयागराज
9/4/2021 2:54pm

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