जन-मानस को आकर्षित , करती हैं यें मधुशाला ,
क्या रईस क्या मुफ़लिस , सबको भाता है प्याला ।
आधुनिकता की होड़ में , आम हो गई मधुशाला ,
पतन संस्कृति का करने को , आतुर हैं यें मधुशाला ।
मधु नहीं माहुर है इसमें , नाम ही केवल मधुशाला ,
काया को क्षीण ये करती , सबका है जांचा भाला ।
परे हो जाते सब अपने , उल्लास पर लगाए ताला ,
लिपटते जा रहे गर्द में , गले अटकता निवाला ।
निगल खुशियां और लहू , फलती फूलती मधुशाला ,
जीते जी ही नरक दिखाए , मधुशाला या अन्तकशाला ।
दे आहुति आह्लाद की , जीवन मत करो स्वाहा ।
नशा प्रेम का करो रे भाई , मत जाओ अब मधुशाला ।।
स्वरचित , मौलिक
नेहा चितलांगिया
मालदा
पश्चिम बंगाल
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कविता