विकलांग नहीं दिव्यांग कहो।।
एक अंग के ना होने से
क्या कोई मुझको रोक सकेगा
कर्म पथ पर जब चल दूंगा मैं दिव्यांग
तो क्या कोई मेरा मनोबल तोड़ सकेगा।।
विकलांग नहीं दिव्यांग कहो।।
माना हूं तन से मैं एक दिव्यांग
अपने मन से में दिव्यांग नहीं ,
कार्य करने की क्षमता है मुझमें
में बेबस और लाचार नही ।।
विकलांग नहीं दिव्यांग कहो।।
मेरे शब्दों मैं ही है भाव मेरा
यही आत्म बल जीवन है मेरा,
अपनी दिव्यांगता का बोझ मैंने
किसी पर न डाला यही सम्मान मेरा।।
विकलांग नहीं दिव्यांग कहो।।
मैं वह हर कार्य कर सकता हूं
जो इस समाज के हित में हों ,
ईश्वर की दी हुई इस दिव्यांगता से
दुनिया की सोच बदल सकता हूं यह हुनर है मेरा।।
विकलांग दिव्यांग कहो।।
अपने मनोबल और साहस से
विकलांगता स्वीकार करता हूं
मैं प्रतिभाशाली ससक्त हूं बहुत
इतिहास भी बदल सकता हूं।।
प्रतिभा दुबे (स्वतंत्र लेखिका)
ग्वालियर मध्य प्रदेश
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कविता