गुनगुनी धूप मैं कभी
फुर्सत से बैठी मेरी मां
बुनती रहती कुछ न कुछ
अक्सर घर में सबके लिए ,
सोचती हूं की उनको सच में,
फुरसत मिलती थी क्या कभी!
जब भी ठंड आ जाती है ,
मां के हाथ का स्वेटर जो
कभी बुना था मेरे लिए
उसकी याद मुझे आ जाती हैं।।
बंद दराज खोल कर जब भी
उसको देखती हूं कभी आज
तब तब याद आता है मुझको
मां का वो असीम स्नेह अपार !
मेरे लिए बनाती स्वेटर प्यार से,
खुद पतली सी शाल को पहिने
बिता देती जो पूरी सर्दी की रात
जब पूछती थी में उनसे यह बात
क्या तुमको ठंड नही लगती मां
बड़े प्यार से मुझे बताती थी मां!
तेरे सभी पुराने सारे स्वेटर
मेरे लिए ही तो है सब बेटा !
वैसे भी काम मैं कहा ठंड लगती है ,
तू तो ठंड मैं रोज बाहर निकलती है!
यह कह कर वे मुस्कुरा उठती थी ,
प्यार से फिर मुझको वे ठपटी थी !
आज भी जब भी ठंड आ जाती है ,
जैकेट निकलने से पहिले मुझको,
मां के हाथ का स्वेटर की याद आ जाती है।।
प्रतिभा दुबे (स्वतंत्र लेखिका)
मध्य प्रदेश ग्वालियर
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कविता