वो कांच की लड़की
सोचता हूं,
उसे छू लूं।
पर नहीं,
कहीं कांच धूमिल ना हो जाए।
कहीं वो बिखर ना जाए।
अक्सर, लोग उसे पसंद नहीं करते।
शायद इसलिए कि,
वो कुछ कहती नहीं।
बस, आईना बन खड़ी हो जाती है।
लोग कहते हैं,
बड़ी नक चढ़ी है वो
पर वो बेचारी तो,
हमारी प्रतिक्रिया की परछाई भर दिखाती है।
ना जाने क्यों,
हम चिढ़ जाते हैं।
आखिर, खुद को नकार देना ही तो
हमारी खूबी है।
अजय "आवारा"
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कविता