मत्तगयंद सवैया
ज्ञान निधान सुजान महान सुनाम वही हनुमान कहावै,
लै करताल मिलावत ताल कि नाचत राम बखान सुनावै,
बंदर जानि हंसौ जनि कोय इ बंदर फांदि समंदर जावै,
कौतुक कूदि कियो कपि लंक में लंक उजारि कलंक मिटावै।
लाल दिखा फल जानि चखा मुख मांहि रखा भइ रैन अंधेरी,
चौदह कोटिक दूर नहीं शिशु वीर कपीश लगी नहीं देरी,
चीख-पुकार मची जगती अति हेरति मातु लगावति टेरी,
शेष सुरेश गणेश महेश मनाय मिटी तब त्रास घनेरी।
लंकिनि तारत अक्षय मारत मर्कट बाग उजारत आवै,
देखत दानव दंग दबंग उतुंग अटारिन कूदि जरावै,
रंगहि भंग कियौ सरहंग निहंगम यों हुरदंग दिखावै,
तंग किये अस भंग पिये जस मस्त मलंग अतंक मचावै।
लै रघुनाथहि भ्रातहि साथ गयो अहिरावण नागपुरी को,
बांधि दियो कपि साधि गयो निज द्वार खड़ौ यह सुत मकरी को,
देखत स्वामि बंधे बलिवेदिहि रुप धरी कपि मां असुरी को,
मारि संघारि खंगारि दियो कुल सानुज प्राण बचाय हरी को।
नाथ अनाथ भयो जब भ्रातहि शक्ति लगी सब शोक समाने,
गेह समेत सुषेन जु वैद्य को लंक अभेद्य सों मारुति आने,
विद्युत चाल उड़े तत्काल उखाड़ि लिये गिरि द्रोण सयाने,
पाय सजीवन प्राण बचे प्रिय भ्रात समान इन्हैं प्रभु माने।
ज्यों बजरंगबली हनुमान रहैं हिय में नित राम सिया के,
त्यों सिय रामहि दिव्य छटा दिखलाय दियो कपि स्वयं हिया में,
चीरि दियो निज वक्ष समक्ष न भक्त कहीं तुम सा दुनिया में,
जोरि दसौं नख है विनती कपि आन बसौ हमरे भी जिया में।
सादर. साभार..
हरि नाथ शुक्ल हरि
सुल्तानपुर उ.प्र.
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कविता