ए कुंवारी रही जनकदुलारी

|| मित्रो, इस 'जिकड़ी भजन ' में पूछे गये प्रश्न का यदि कोई उत्तर हो तो दें ||    

*कवि रमेशराज के पिता स्व. श्री 'लोककवि रामचरन गुप्त ' का एक चर्चित ' जिकड़ी भजन '* 

*ए कुंवारी  रही जनकदुलारी*

हे प्रभु जगदाधार चरण तुम शीश नवाऊँ  
मोय देउ ज्ञान कौ दान, सदा गुण तुम्हरे गाऊँ ।
मोहि समझौ अपनौ दास
सकल सभा के बीच में
मैं गाथा रह्यौ  सुनाय-

सो जनक कही टूटौ नाय धनुआ
हारि गये सब बलधारी
ए कुंआरी रही जनक दुलारी।।

--मर्म वचन बोले मिथिलेशा--
वीर विहीन भयौ भूमंडल जान लयी मैं जान लयी
वैदेही कौ ब्याह रच्यौ ना विधिना-गति पहचान लयी
निज-निज ग्रह नृप जाऔ सब, मानौ कहन हमारी
कुंआरी रही जनक दुलारी।

--हंसि बोले रघुवंश कुमारा--
धनु के कहा मही के टुकड़े-टुकड़े करि डालूं पल में
और भूमि को खंडित करि कें पहुंचा दऊँ रसातल में
दौड़ूं लै सौ योजन चापा, आज्ञा मिलै तुम्हारी,
कुंआरी रही जनक दुलारी।

--गुरु आयुष ले लीनौ है--
शिव कौ धनुष उठाकर कर में
खण्ड-खण्ड करि दीनौ है
लखि पौरुष तब राम कौ हर्षित 'जनक' अपार
वैदेही ने राम के माल दई गल डार।

जब राम माल गल डारी, सीता मन कहा बिचारी?
सुधिजन ग्रंथ उठाऔ, 
इस गुत्थी को सुलझाऔ
अब रामचरन की बात से परखें बुद्धि तुम्हारी
कुंआरी नाहिं जनक दुलारी।।

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