आओ !
बन्द कमरे में बैठें ;
खुली जगह ,खुली मैदान में
घुटन होने लगी।
श्वासें भी जहरीली हो गयी,
विश्वास की धागे में
फूल अब गूथें नही जा रहे,
संस्कारित कपास अब उग नही रहे,
मिट्टी , तन - मन
अब रसायन जो खाने लगे।
लोग अब इठलाने में मस्त
बन्द कमरों पर बन्द होंठ ;
खिलखिलाने पर लगा गश्त
हरी दूब मुरझाने लगे ;
गमलों में लगे सुमन ही
प्रिय लगने लगे ,
अब ;
दालान आँगन गाँव उपवन
की शायद जरूरत नही।
गर्म चाय की कप को भी
प्लेट ढूँढना मंजूर नही ,
तनिक सा इंतजार दूसरों का सत्कार ,
सेहत के लिए ठीक नही ;
स्नेह वात्सल्यता की घड़ी रही नही
दीवाल खड़े हो गए आँगन में
दहक रहे अंगारे नसों में
बिक रहे सब बाजारों में
आओ!
बन्द कमरे में बैठें।
विजय पंडा
घरघोड़ा(रायगढ़)
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कविता