आँख || गोलेन्द्र पटेल
१.
सिर्फ़ और सिर्फ़ देखने के लिए
नहीं होती है
नाक के दोनों ओर
आँख
यदि निर्निमेष
देखो तो ऐसा देखो
जैसे देखता है
कोई संवेदनशील : रचनाकार
२.
लगातार
सौंदर्य के सुख को सुख की तरह देखना
और तलाशना
दुख की दुर्गंध में
ख़ुशबू ,
सेंकना
ख़ुबसूरत समय पर जीभर कर आँख
फेंकना
बाण , नयन से उधर
जिधर ज़िंदगी की जन्नत है
३.
हर दृष्टि की होती है
अपनी दुनिया
उनके भी उगते हैं तारे
दिन में
जो जानती हैं
भौंहों की भाषा
गुनगुनाती हैं
निराशा में आशा का गीत
४.
भरी दोपहरी से
तंग होकर
रेगिस्तानी राहों पर
प्यासी नज़रें भी दौड़ लगाती हैं
पदचिह्न निहारती हुई
पुरवाई
पछुआ से पूछती है
ऐसा क्यों?
५.
धूल-धक्कड़ से
सीज़न के
बवंडर में बचानी है
अपनी आँख
बोल रही है ऐनक
ऐन वक्त पर
चमचमाती धूप की चश्मा
लेना अच्छा होगा
जिस पकी उम्र के पास यात्रानुभव है
वह भी यही कहेगी
६.
आम आँखों की तरह
नहीं होती
दिल्ली की आँख
बिल्ली की तरह होती है
फुरती
वहाँ की आखों में
न्यायालय की देवी को कौन नहीं जानता
सच को सच की तरह सूँघ
कितनी बारीकी से
किसी दोषी को पहचान लेती हैं
धन्य है काली-पट्टी
७.
देखना क्रिया का
आँख-शास्त्र में
अलग अलग आँखों के लिए
अलग अलग अनेक परिभाषाएँ हैं
कभी आँखें नीचे होती हैं
तो कभी ऊपर
कभी हरी होती हैं
तो कभी लाला
८.
और कभी कभी मदांध आँखें
दिखाई देती हैं
रौंदती हुई
सड़क पर सोई असहाय आत्माओं को
अरे! आश्चर्य की बात नहीं
ब्रम्हांड की सारी आँखें सदैव भूखी होती हैं
भूख की परिधि पर
टिक गई आँख !
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कविता