जलियांवाला बाग देख भारत माता भी रोई थी
लाशों के ऊपर लाश देख वो कई रात ना सोई थी
दृश्य भी इतना था विभत्स जो कोई देख नहीं पाता
पत्थर दिल वाला भी देखे तो उसका दिल भी थर्राता
घायल के ऊपर गिरा मृतक नीचे घायल बिल्लाता था
उसके भी नीचे जीवित था जो इन्कलाब चिल्लाता था
वसुन्धरा भी सिसकी थी तब आसमान भी रोया था
रक्त भरी उस बगिया को अपने अश्कों से धोया था
सारी मातायें फफक पड़ी बच्चा बच्चा तब रोया था
तब पंजाब के एक बच्चे ने एक बन्दूक को बोया था
फिर पिता ने उससे पूंछ लिया बेटा ये तुमने क्या बोया
तब वो बच्चा फिर गले लिपट अपने बापू से खुब रोया
आप अन्न पैदा करते मैं बन्दूकों की फसल उगा दूंगा
भारत माता के अश्क पोंछ बेड़ियाँ मुक्त मैं कर दूंगा जलियांवाला बाग की मिट्टी अपने मुख से चूमा था
भारत आजाद कराने को अपनी मस्ती में झूमा था
बड़ा हुआ बन भगत सिंह अंग्रेज़ोको ललकारा था
संसद के अन्दर घुस कर के जनरल डायर को मारा था
अपनी भरी जवानी में जनरल डायर को मार दिया
भारत माँ की आज़ादी को फांसी का फन्दा चूम लिया
जब भगत ने फन्दा चूमा था फन्दे की रस्सी रोई थी
भारत की धरती फफक उठी सारी मातायें रोईं थी
ऐसे वीर भगत सिंह को है पथिक कर रहा नमन आज
भारत आजाद कराने को जिताने प्राणों को दिया त्याग
स्वरचित:- विद्या शंकर अवस्थी पथिक कल्यानपुर
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कविता