माँ दुर्गा का दर्द (व्यंग्य)

माँ दुर्गा का दर्द  (व्यंग्य)

गहरी नींद में मैं सोयी थी आयी दुर्गा माँ...!
बोली,बेटी उठो अब दिवस हो रहा जवां...!
रात की घोर अँधियारी छंट गई, 
सूरज की रोशनी सर पे चढ़ गई। 
आये फिर से पंचायत के चुनाव, 
नेताजी दिखला रहे अपने दांव। 
चुनावी बिगुल बजने अब लगे,
प्रत्याशी उजले दिखने अब लगे। 
जो थे समाज के लिए कल थे दंश,
वे सभी भी बन रहे हैं आज हंस। 
जो, वास्तव में होंगे वो दुष्ट कंस। 
चलाएंगे राजनीति में अपने वंश‌
कोई वार्ड,समिति,परिषद कहेगा, 
कोई समझेगा यहाँ खुद को प्रधान...!
गहरी नींद.... 
नोटों की फिर धौंस जमाएगा कोई, 
अस्त्र-शस्त्र का रौब दिखाएगा कोई, 
मुर्गा दारू का रोज भोज खिलाएगा कोई, 
पेट्रोल का खर्च भी फिर उठाएगा कोई, 
लोगों को जाति-धर्म में फिर बांटेगा कोई, 
ये भाषाओं की भी लंबी खाई बनाने लगेंगे, 
शहद से ज्यादा मीठी हो जाएगी इनकी जुबां...!
गहरी नींद.... 
मां ध्यान से मुझे बातें सुना रही थी, 
वर्तमान राजनीति मुझे बता रही थी, 
सुनाती हूँ मैं तुम्हें आपबीती राज, 
मन्नत हैं , सुरक्षित सत्ता का ताज, 
कोई नेता नहीं आता बिना मतलब मेरे द्वार, 
आकर यही कहता मां कर दो मेरे देश का उद्धार,
मुझ पर सोना चांदी चढा कर रिश्वत से भरमाता, 
कभी चुनरी ,कभी मिठाई तो कभी बलि चढ़ाता, 
हाथ जोड़ कर मुझसे हमेशा ये झूठे वादे करता, 
कि सारे झुग्गी झोपड़ियों को देंगे बना कर मकां..!
गहरी नींद....-2
        एकता कुमारी ✍🏻

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