रंग बिरंगी दुनिय बदरंगी सी क्यो हो गई?
मान मर्यादा वाली शालीनता बोझिल सी लगने लगी।
चारो ओर शर्म नजरें झुकाये शर्मसार थी।
बेबसी मे सुबकती लाचार मुँह छुपाने लगी
कलयुग की कड़कती बिजलियाँकहर बन नन्ही कलियो के जिस्मो को जलाने लगी।
कौन हो कहाँ तक कदम बढ़ाओगेसूखी आँखों की छलक दिल को चीरकर सहमी तड़प जगाने लगी।
समाज की जंजीरो को तोड़ दो। अबला नकाब छोड़ कर स्वयं रण चण्डी का अवतार ले, नारी तू सृष्टि का आधार है। फिर क्यो बनी लाचार है। सीना फाड़ कर रक्त की होलिका बन , तू सिंह वाहिनी, लाज
इंसानियत की सम्भालने नारी बन अब अंबिका। नन्ही कलियाँ ही कल का भविष्य है। इन्हे रौधने वालो के लिए बन जा चण्डमुण्ड विनाशनी ।
संहार से दैत्यों के, शुद्ध विचारो से समाज को स्वस्थ बना। नारी तू स्नेह से घर सजा, अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए आत्मनिर्भर बन जा। कर पतन पतितो का चामुंडा अवतार धर।
आकांक्षा चचरा
पद-शिक्षिका एवम् कवयित्री
कटक ओडिशा
संसथान-गुरू नानक पब्लिक स्कूल
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कविता