आज न जाने क्या सूझा कि

आज न जाने क्या सूझा कि 
 श्मशान का चक्कर लगाने चली गई

देखा तो राख के ढेर थे
    जगह जगह राख में से हड्डियां
झांक रही थी,

शायद यही जीवन है राख हो जाना
जिसके जीवित रहते , हमेशा

घर पवित्र पावन रहता है
  मरने के बाद अशुद्ध क्यों

क्योंकि वह तो सब समर्पित कर
जाता है तन मन धन

नहीं समझ आया इसलिए
श्मशान चली आई 

कुछ देर वहां बैठी , मन बड़ा शांत था
बस जीवन का अंत  राख है

बाक़ी फिर विसर्जन , कोई नहीं कहता है कि
राख सम्भाल लेंगे ,

बस  जिंदगी का यही फलसफा है
कि खुद को राख बना के जिओ


अर्चना जोशी
भोपाल मध्यप्रदेश

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