तिल तिल तिलांजलि देती रही
तिल तिल कुढती रही, तिल तिल मरती रही
पर जी नहीं पाई
तिल तिल अंजुल भर फूल बिखेरे
पर कांटे निकाल नहीं पाई
तिल तिल जिंदगी सरकती रही,रेत की तरह
हाथ से फिसलती रही
दुआ के लिए भी तिल तिल जलना पढ़ता है
हो जाए पूरी तो ठीक
नहीं तो तिल तिल मरना पड़ता है
शायद यही जीवन है, जहां मानव को तिल तिल
ही रहना पड़ता है ।
अर्चना जोशी
भोपाल मध्यप्रदेश
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कविता