चल रहा देवासुर संग्राम जब बड़ा भयानक मंजर था ।
देवों और असुरों में एक बड़ा देखो कैसा असमंजस था ।।
कभी पलड़ा असुरों का भारी पड़ता कभी देव खुशी मनाते
मगर दोनों ही जैसे इस संग्राम में विजय प्राप्त न कर पाते
थक हार कर दोनों हार और जीत का मंथन करने लगते ।
कैसे इस महा संग्राम का अंत हो आत्म मंथन करने लगते
हार और जीत के सेतु बंधों में देखो कैसा असमंजस था ।
हर कोई जैसे अपनी ही जीत के लिए हरपल उत्सुक था ।
त्रिदेव के समीप देव और असुर समाधान हेतु चले जाते हैं
तब विष्णु उनको समुद्र मंथन का रहस्य समझाते हैं ।।
मंदिराचल को मथनी बना वासुकी को रस्सी बनाते हैं ।
कच्छप रूप धारण कर विष्णु पर्वत पीठ पर टिकाते है ।।
असुर नाग मुख पर तो देव पूंछ पकड़ मंदरांचल को घुमाते हैं ।
विष्णु अपनी पीठ भाग पर सृष्टि का भार वहन कर जाते हैं ।
घर्षण की पीड़ा सहसहकर विष्णु भी जैसे घायल हो जाते हैं ।
समुद्र के जीव व्याकुल होकर सहर्ष ही तट पर आ जाते हैं।
हलाहल की फुंकारों से सारी सृष्टि में हाहाकार मच जाता है ।
तब देवासुर समाज उस महा विष से तृषित सा हो जाता है ।
तब संकट हरने महाकाल महादेव सहर्ष ही प्रकट हो जाते हैं ।
अंजलि में भर कर सारे विष को कंठ में ही गरल कर जाते है ।।
इसी लिए तो देवों के देव महादेव नीलकंठ भी कहे जाते हैं ।
खुद हलाहल का पान कर सारी सृष्टि को वे बचा ले जाते हैं ।।
इसके बाद निकले रत्नों को देव और असुर बांट लें जाते हैं ।
ऐरावत हाथी इंद्र ने लिया और उचसृवा को असुर ले जाते हैं ।
लक्ष्मी ने वरण किया विष्णु का अन्य रत्न देवासुर पा जाते हैं ।
उसके बाद अमृत और सोम रस पर दोनों फिर भिड़ जाते हैं ।
मोहिनी रूप बनकर विष्णु देवों को अमृत पान करा जाते हैं ।
असुर समाज के लोग सोमरस पी पीकर खुद को भूल जाते हैं ।।
एक असुर देवों की पंक्ति में चुपके से आकर वो छुप जाता है ।
अमृत का पान कर फिर वह असुर अमृत्व प्राप्त कर जाता है ।
सूर्य चन्द्र उसे देख उद्वेलित से हो विष्णु को इशारा कर जाते हैं ।
विष्णु सुदर्शन चक्र से उसके मस्तिष्क को धड़ से अलग कर जाते हैं ।।
मगर अमृत पान कर वह असुर तो अमृत्व प्राप्त कर जाता है ।
इसी कारण समय समय पर राहू केतु बन सूर्य चन्द्र को निगल जाता है ।।
यही राहू केतु का जाल मनुष्य जीवन में प्रति पल चलता रहता ।
सुख दुख के भंवरजाल में मनुज प्रति पल ही उलझता रहता ।।
देवा सुर संग्राम मानव जीवन में पल प्रति पल चलता रहता ।
आशाओं और आकांक्षाओं की बलि वेदी पर मनुज चढ़ता रहता ।।
कुत्सित मानसिकता और बुरे इरादें मनुज को असुर बना जाते ।
सद विचारों पर चलने वाले मनुज जीवन में देव समान कहलाते ।।
हार और जीत का सेतू बंध जीवन में बस हमें यही सिखाता है ।
घोर अंधेरी रात के बाद सत्य का सूर्य जीवन में उदय हो जाता है ।।
आशाओं और निराशाओं के पालने में झूलने पहले आत्ममंथन करना ।
धैर्य और संयम का अमृत पान जीवन में सुख शांति समृद्धि लाता है ।
लोभ और लालच में फंसकर कभी मनुज पूंछ विहीन पशु बन जाता है ।
जो नहीं करता आत्म संयम का पालन शीघ्र मृत्यु ग्रास बन जाता है ।।
जय हिन्द जय भारत वंदेमातरम
चन्द्र शेखर शर्मा मार्कंडेय जनपद अमरोहा उत्तर प्रदेश
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कविता