अच्छी लगी

अच्छी लगी 
जो ग़ज़ल तुम पर कही अच्छी लगी
तुम पे अपनी आशिक़ी अच्छी लगी

तुमने  हौले   से  ज़रा  मुस्का  दिया
जो मिली मुझको ख़ुशी अच्छी लगी

जब मुहब्बत में  ख़ुदा तुमको किया
तब  कहीं  ये  बंदिगी  अच्छी  लगी

ख़ूबसूरत  अब  हरिक  लम्हा  हुआ
वस्ल  में   ये  चाँदनी  अच्छी  लगी

आप  जब  पहलू  में  मेरे  आ  गये
भर  गई  इक ताज़गी अच्छी लगी

गिरतीं रुकतीं हैं फुहारें आज अब
मौसमे-संजीदगी      अच्छी लगी

हर तरफ आलम बहारों सा लगे
छाई है इक दिलकशी अच्छी लगी

उसकी ख़ुशियाँ देख कर भीगी नज़र
अपनी आँखों में नमी अच्छी लगी

छा "बिसरिया" पर  गई दीवानगी
पा  उन्हें  दीवानगी  अच्छी  लगी

चंद्र स्वरूप बिसरिया"कानपुरी"
अच्छी लगी
ग़ज़ल
रदीफ़-अच्छी लगी
हर्फ़े-क़वाफ़ी-ई स्वर
क़ाफ़िया-कही
नापनी-२१२२  २१२२  २१२

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