जब लड़का वो अकेला था
चारों तरफ़ खामोशियों का मेला था
यूं हीं नहीं रोया वो रात भर बैठकर
शायद उसके दिल से किसी ने खेला था
शाम के अंधेरे में, उदासीयों के घेरे में
दोपहर वो दिन में, बेरंग दुनिया रंगीन में
खुद को एक अहसास दिला कर
खामोशियों के साथ सो जा कर
रोते–रोते एक कल्पना करके
किसी के याद में खुद को अपना करके
जिंदगी के कसमकश से
ख़ुद को निकाल कर अपने वश से
जैसे धीरे धीरे ख़ुद को खो रहा है कोई
रो–रोकर फिर से रो रहा है कोई
एक मुक्कमल नींद की चाहत में
रो कर देर रातों में सो रहा है कोई
आज किसी के लिए वो रोया था
शायद अभी–अभी उसे खोया था
©®~ ✍️
Deepak kumar pankaj
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कविता