मन मेरा विचलित था ; ह्रदय विविध विचारों को लेकर आन्दोलित था।बात उन दिनों की है जब ; देश मे वैश्विक महामारी का प्रारम्भिक दौर चल रहा था।प्रचंड गर्मी का दिन , सड़कें गर्मी से तपी हुई थी।अपनी सुविधा व विकास के लिए बृक्षों की कटाई कर देने से अट्टालिकाओं के शहर में कहीं छाँव भी नही थी।वैसे पेड़ों को हम काटते गए और "पर्यावरण बचाओ" का नारा देते गए जबकि ; पर्यावरण आज असंतुलित हो चुकी है।सरकार के जन हित निर्णय से सारे देश मे कर्फ्यू के चलते गाँव - नगर की सड़कें, गलियाँ, पगडंडियाँ सुनी - सुनी रहती थी।मन मे भय, भविष्य की चिंता लोगों में व्याप्त थी। परिवार,समाज व राष्ट्र, धर्म की जिम्मेदारी बनती थी कि ; हम सरकार का नही ; खुद का सहयोग करें। मेरी चिंतन मष्तिष्क में यदा - कदा ; कुछ -कुछ विचार आने से शायद कुछ लिखने को प्रेरित कर दिया जैसे कि बहुधा भौतिकवादी युग मे मध्यम वर्ग के व्यक्ति साथ होता है।एक मध्यम वर्ग ही तो है जिसके पास सोचने के लिए समय है व प्रकृति अनुसार वह एक आँख से नीचे वर्ग को व एक आँख से ऊपरी वर्ग को देखता है व स्वयं से तुलना करते रहता है। कर्फ्यू के दिनों में एक दो अखबार जो मिलता उसे पलटते - पलटते सारे पन्ने छोटे बच्चों की तरह उत्सुकतावश पढ़ लिया करता था।अचानक एक दिन उस बुढ़िया पर ध्यान केंद्रित हुआ ; जो अपने छोटे बच्चों को घर मे छोड़ कर, सब्जी व कुछ पके केले बेचने गलियों में चुपके दबे पाँव आ जाती थी।उससे मेरी आवश्यकता युक्त सामग्रियों की पूर्ति तो होती ; साथ समय की बचत भी हो जाया करती थी।सच कहूँ ! शायद तो, बाजार से कुछ आने ज्यादा देने व कुछ आने कम पाने की स्वार्थ लाभ ने आपस मे अपनत्व की भावना जागृत कर दी थी; भले ही हम बाजार में खड़े रहे हों।हम मनुष्य अधिकांशतः स्वार्थ वश दुनिया के इस मेले में ज्यादा जुड़े हुए हैं। मेरा परिवार भी उसे हाल चाल पूछ व्यापार को किनारे रख ; मानवीय मूल्यों को सामने रख ,उससे हाल - चाल जानने की बात कर ; उसे चिलचिलाती गर्मी में उसके माथे में बहते परिश्रम के स्वेद बिंदुओं को पहचान कर पानी, चटाई आदि की सेवा कर दिया करता था।मुझे भी अच्छा लगता ; लगता भी क्यों नही ? जब इस संसार मे लोग सामने वाले कि परिधान को देख व बिगाड़े जाने की ताकत को तौल कर सम्मान का वजन बढ़ा दिया करते हैं।जब कि वो तो ; शारीरिक रूप से ही नही आर्थिक रूप से मानो मातृत्व की जिम्मेदारी व बच्चों के लिए पिता की जवाबदेही तय कर रास्ता सफर कर रही थी।तब तो ; तपती गर्मी में प्यासे काले सिलवट होठों पर जिव्हा घुमाते दो कोश दूर साहस पूर्वक मुस्कुराते आ जाती थी।जो इस बात को दर्शाता की कुछ सामग्री बेचकर उदर व दैनिक जीवन की पूर्ति हो सकेगी स्वाभिमान पूर्वक।लेकिन ; कुछ दिनों से वह आ न सकी और मैं मिल नही पाया व मेरे ध्यान से भी वह ओझल हो गयी थी। उसे न मिल कर एक दिन अचानक सोचा ; शायद जिम्मेदारियों के कारण व वैश्विक आपदा में अपने धर्म को निभाते हुए मेरी तरह , उसके घर से बाहर कदम नही बढ़ रहे होंगे।लेकिन उसके दिनचर्या को सोच हिम्मत की प्रशंसा करता और कुछ उसकी बेबसी व आर्थिक तंगी को सोच मन क्षुब्ध रहता था; प्रकृति के ऊपर।एक तो बच्चों के ऊपर पिता की छाया नही व उस बुढ़िया की काया को विश्राम नही। मैंने भी स्वार्थवश उसके कुटिया रूपी महल की भौगोलिक पता को न पूछा और न कभी जानाना चाहा। बाजार में भी यही तो होता है।पता नही ? वह नन्हे बच्चों को क्या खिला रही होगी ? क्या उसकी आत्मसम्मान विपदा के समय उसे किसी से सहयोग लेने की स्वीकृति दे रही होगी?क्या यही मेरा उससे सम्बन्ध था ; जो बहते समय व दौड़ भाग की जिंदगी में उससे कुछ और जानने की कोशिश भी नही किया।तथाकथित पढ़ा लिखा होकर बौद्धिकता नही दिखा पाया की उसकी पगडंडियों व आवास का पता जान लेता और आज मुलाकात कर लेता।यह भी हो सकता है की मैं सिर्फ कुशल उपभोक्ता बन गया था।विपदा का भी धन्यवाद की दूसरों के लिए सोचने का समय निकाल पाया मनुष्य ने।आने वाले दिनों में मेरी तथाकथित चिंतन ,लेखन, शिक्षा को वो आईना दिखा गई थी ; कि धरातल पर मानवीय मूल्यों को उतारना कितना जरूरी है।ज्यों ही पुनः एक दिन कान उसके आवाजो से कंपित हुए ; हल्की दरवाजे की खटखटाहट सुनाई दी वो मेरे विचारों को केंद्रित करने वाली पात्र अभी भी साहसिक मुस्कान लिए सब्जी की टोकरी लिए अपनी जिम्मेदारी तय कर रही थी। वो भी कर्फ्यू के दौरान; उसे मेरे घर का पता एवं आवश्यकता भी मालूम था।जब उसने कहा कि ; सारे सब्जी खेत बाड़ी से ही बिक गए आपके लिए ही शेष बचा कर लायी हूँ। मुझे लगा उसने मुझसे कहीं ज्यादा शिक्षा के आयामों को छू लिया था ।सामने सहयोग की उत्कण्ठा को पाले रखने के मूल्यों को देख मैं स्तब्ध हो देख रहा था व सिख भी रहा था।उसे मेरे घर का पता तो मालूम था और मुझे ? मेरे लिए सीखने का महत्वपूर्ण समय रहा कर्फ्यू के वो दिन - - - - ।
विजय पंडा घरघोड़ा
रायगढ़ छ0 ग0
मो0 9893230736
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