जाने जग को क्यों है खलती

जाने जग को क्यों है खलती


चुपचाप सहे फिर भी न थके,

सकुचा न सके जो बता न सके|

वह नीर भरे थे दुख से सिहरे,

त्याग करें हँस सब वों विहरे ||

सब मान कुचलने के भाव भरे,

सम्मान बचाने वह तो पांव धरे|

फिर भी वों लाज बचा न सकी,

सहमी रही क्रंदन  कर न सकी ||

मार ईहा को भार उठाती रही,

देह बेच वह दाना चुगाती रही |

निज गौरव भले बचा न सकी,

गृह भार उठा दिखती न थकी ||

अनुभाग छिपाकर वों चलती,

तज दूषित अक्षि चक्षु मलती |

उन नैनों में ममता पूर्ण लहे,

त्याग करें वह हर कष्ट सहे||

उमड़ी बदली सी वों बरसे,

वह नारी निष्ठा को तरसे|

अबला बन व्यभिचार सहे,

सबला बन वों संहार करें ||

जो व्यथा वों किसको हे!कहें,

अंतर के मान सदा चोट सहे|

उठती गिरती फिर भी चलती,

जाने जग को क्यों है खलती||

स्वेता गुप्ता "स्वेतांबरी"(कोलकाता)

स्वरचित /मौलिक

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