वर्षगाँठ

वर्षगांठ 

चलो गिरा दे दो बूंद आंसू
साल की विदाई है।

वक्त ऐसा गुजरा जैसे
पटरी से रेल,
सीखा गया चलो नए
ढ़ंग का खेल,

जीवन में कहीं प्रसन्नता
कहीं उदासी,की कणाई  है।

हर बार की तरह
इस बार नहीं बीता,
गुजारना पड़ा पढ़कर
रामायण गीता,

ऊपर ठंडी नीचे ठंडी
बीचो बीच में,रजाई है।

हजारों अफसानो में एक
बेहद दर्दनाक था,
चलो खैर टल गया जो
खतरनाक था,

हैरान मत हो रहेगी
कुछ दिन,तन्हाई है।

धूमिल-धूमिल प्रकाश
बना रहा,
मृत्यु से जीवन का द्वंद
ठना रहा,

मगर क्या कर सकते हो?
अपनी-अपनी कमाई है।

खो बैठे हैं सच में
अपनें अपना,
खैर हकीकत हो गया
मेरा सपना,

सजाना नहीं है पहले
से पालकी,सजाई है।

सुधांशु पांडे"निराला"
प्रयागराज,उत्तर प्रदेश,

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