देखो ! आज गणतंत्र आया!
स्वर्ण मुकुट से सजा हुआ
पहन कर वो फिर इठलाया ;
परोसा शब्दों की व्यंजन
पर किसी को न रास आया ;
देखो !आज गणतंत्र आया!
तंत्र आज बिखरा हुआ
गण एकता का मन्त्र ढूँढ रहा ;
कंधे उसके हैं झुके हुए
जाल में पैर हैं बंधें हुए ;
आज वह गुमराह है ,
बन्द मुट्ठी आँख नीची
सिर्फ दौड़ना है।
देखो ! आज गणतंत्र आया !
न हाथ मे चाबुक है
गण का मन भावुक है ;
एक साहूकार बाकी सब बेकार
जनता देश में करती हाहाकार ;
गणतंत्र में आवाज हुई गुम
शरीर बोझ से टूट चुका ,
वह बस तिरंगे को निहार रहा ;
देखो! आज गणतंत्र आया ।
यहाँ कहा - सुनी का दौर है
चिल्लाते बेरोजगारों का शोर है
चीखते बच्चियों की पुकार है
घुटन है छायी ; मची है कोहराम
बादल में घुप्प अँधेरा है
देखो!आज गणतंत्र आया है !
विजय पंडा घरघोड़ा
रायगढ़
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कविता