एक परिंदा



एक परिंदा

एक  परिंदा  बार  -  बार मानव को कोस  रहाँ था
बद्दुआ निकल रही थी दिल से और सोच  रहाँ था
आखिर क्यों इंसानों घोसले वाला पेड़ काट डाला
जमीन  पर  पड़े हुए घोसले में  चोंच मार  रहाँ था
एक  परिंदा  बार - बार  मानव को  कोस  रहाँ था

अपना  ठिकाना वो  बार - बार  याद कर  रहाँ था
दूर  बैठकर  डाली  पर  बहुत  ही  घबरा  रहाँ था
याद आ रहे  थे  अपने घोंसले में बिताए हुए दिन
अपने  साथियों के चिन्ह पेडो  पर खोज  रहाँ था
एक परिंदा  बार -  बार  मानव को कोस  रहाँ था

बिछड़  गए  जो  साथी  उन्हें  याद  कर  रहाँ था
अंतरात्मा  से अंदर ही अंदर आंसू  बहा  रहाँ था
प्रतिशोध भरा  था मानव  के प्रति उसके हृदय में
वो गुस्से  में आसपास  की  डाली  नोच  रहाँ  था
एक  परिंदा  बार  - बार  मानव को कोस रहाँ था ,,

महेश राठौर सोनू 
गाँव राजपुर गढ़ी
 जिला मु० नगर

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