रोते हैं दिखते नहीं,
बाबूजी मुस्कात ।
अंगुल पकड़े थे कभी,
छोड़ चले वह हाथ ।।
दिन दीखे अब रात सा,
बिखर गये सब साज ।
दर्पण खूब निहारते ,
भूल रहे पल आज ।।
राज सिखाये थे जिसे,
वही हो गये राज ।
हाथ पैर बल खा रहे,
बिगड़ रहे सद्काज ।।
साथ रहे टूटी छड़ी,
समय सिखाये लाज ।
कद ऊँचा लगता जहाँ,
छिने वहीं सर ताज ।।
प्रतिक्षण मन बस सोचता,
शहर रहा मगरूर।
नज़र परायी थी सखे,
डगर लगे मजबूर ।।
साज ताज नाराज सब,
विफरे प्यारे फूल ।
बाबूजी आँखन तले ,
झलकृत शूल उसूल ।।
डॉ अनुज प्रताप सिंह चौहान "अनुज"
अलीगढ़ ,उत्तर प्रदेश ।
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