शादी
अम्मा हमरे पीछे पड़ि गईं
बेटवा अब तुम करि लेव शादी
हम कहा अबै नाहीं अम्मा
हमरी होई जाई बरबादी
अम्मा कुछ थोड़ा दुखी भईं
धीरे धीरे रोवन लागीं
बहिना हमरी गुस्साय उठी
आईं तुरतैं भागी भागी
भइयव भाभी गुस्साय उठे
खुब जोर जोर डांटन लागे
बप्पा आये दौड़े दौड़े
जूता लईकै मारन लागे
जब हम शादी की हामी भर दी
नाऊ काका बुलवाई गये
सुन्दर बिटिया ढूढ़न खातिर
उई गाँव गाँव भिजवाई गए
नाऊ काका बड़िया हमार
उई ढेरन रिस्ता लई आये
लक्ष्मी, दुर्गा, काली, सीता
सबके घर मा उई होई आये
फिर लक्ष्मी सबके मन भाईं
उनसे रिस्ता तय भा हमार
बहिनी बस उनके एक हवै
भाई तौ उनके हवैं चार
बप्पा के सौ एकड़ खेती
बप्पा हैं गाँव के जमींदार
फिर पंडित जी बुलवाई गये
कुण्डली मा किन्हेंन उई बिचार
छत्रिस गुण मिलि गये जहाँ
बप्पा अब खुश होई गये हमार
लगन की तिथि जब तय होइगै
नाऊ काका घर आई रहे
लगा तेल उबटन हमका
खुब खुब रगरि रगरि चमकाई रहे
जब आवा दिवस बरातै का
महिमानौ सारे आई गए
खुब शोर मचा हमरे घर मा
ढोल, मजीरा बाजि रहे
भाभी खोपड़ी मा धरि रुमाल
मड़वा नीचे बैठारि दिहिन
फिर धीरे धीरे सब हमका
ऊपर से नीचे तक सजा दिहिन
कोऊ कपड़ा पहिनाई रहा
जीजा जी पगड़ी बांधति हैं
फूफा जी चंदन लगा रहे
बहिनव फिर नैन सजावति हैं
नाऊ काका नख काटि रहे
नउनिआ महावर लगावति है
चारौ ओर है शोर मचा
सब दौड़े भागे आवति हैं
जब चली बरात है द्ववारे से
खुब ढोल और तांशा बाजि रहे
कोऊ बिना पिये ही झूमि रहा
कुछ दारु पी पी नाचि रहे
जीजा भाभी के संग नाचैं
नोटन पे नोट लुटावति हैं
भइया साली का ढूंढ़ि रहे
इधर उधर खुब भागति हैं
पहुँची बरात जब द्ववारे पे
मेहरियां सबै खुशमुसाय रहीं
कुछ तो कानें मा कहती हैं
कुछ धीरे धीरे मुस्काय रहीं
कुछ बोलीं लड़िका छोटा है
कुछ बोलीं तुम का कहती हौ
बिटिया हमारि है गऊ समान
यो एकदम भैंसा मोटा है
साली सब हमका घेरि लिहिन
जीजा जीजा चिल्लाय उठीं
हम कहा अरे हम जिन्दा हन
तुम काहे सब चिल्लाय उठीं
सब घेरि का हमका बोलि उठीं
जीजा हमहूं साथैं चलिबै
दीदी सेवा ना करि पइहैं
हमहिं तुम्हरी सेवा करिबै
फिर हंसी खुशी फेरा परिगे
हम गइया भांति कै लई आयेन
जब घर मा लाकै चारा डारा
तब गऊमाता लतिआय दिहेन
उई कहेने हमै का समझत हव
हम तौ तुम्हार मेहरारू हन
खाना का तुम्हरे घरै नहीं
तुम्हरे खातिर हम भारू हन
हम खुशी खुशी कीन्हीं शादी
सब सपने चकनाचूर भये
शादी करिकै पछिताय रहेन
भागे भागे अब घूमि रहेन
सारे घर मा कब्जा उनका
बीड़ी, दारू सब बन्द भई
सूखी रोटी बस खाई रहेन
अब बड़ी मुसीबत आई गई
अब करि बिहाव पछितांय पथिक
हेकड़ी भी सारी निकसि गई
बीबी के पीछे घूमति हैं
रंग बाजिव सारी खतम भई
विद्या शंकर अवस्थी पथिक कल्यानपुर कानपुर
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कविता