पुस्तके मेरा जीवन ---- विद्यावाचस्पति डॉक्टर अरविन्द प्रेमचंद जैन भोपाल
वर्ष १९६५ से पुस्तकों का पढ़ना और संग्रह करने क ऐसा शौक चढ़ा जो आजतक चल रहा हैं .पिताजी ने १९३२ में एंट्रेंस एग्जामिनेशन कैंब्रिज यूनिवर्सिटी जिसका सेण्टर बनारस था से वह से पास किया था .उनको पढ़ने का बहुत शौक था जिसको हम लोग एन्सिक्लोपीडिआ कहते थे .जब भी मै नरसिंहपुर जाता था तो उनकी दूकान मै एक स्थान पुस्तकों के लिया रहता था .जब कभी समय मिलता मुझे वे पढ़ाते और समझाते .
मुझे पढ़ने की आदत उन्होंने बताया कीहर जैन मंदिर मै एक पुस्तकालय रहता हैं उनमे से कोई एक किताब निकालो और पहले एक पैराग्राफ पढ़ो उससे तुममे रूचि पैदा होगी ,फिर एक पेज और उसके बाद पूरी किताब पढ़ सकोगे .इस दौरान मेने मेरी जीवन गाथा वर्णी गणेश प्रसाद ,कुरल काव्य ,डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया ,और अमेरिकन बुक क्लब का मेंबर बना .हर सप्ताह एक पुस्तक स्वेत मोर्टन आदि के एक रूपया की होती थी ,इसी समय बच्चन की निशा निमत्रण ,मधुशाला आदि .
हमारे घर के सामने श्री पार्श्वनाथजैन लाइब्रेरी उसमे बहुत उत्तम उपन्यास जैसे गण देवता ,,क्या भूलू क्या याद करू आदि को पढ़ा .इसी आदत के कारण मैंने कॉलेज के समय सभी पुस्तके खरीदी यध्यपि उस समय मंहगी होती थी पर पुस्तकों से लगाव के कारण सभी विषयों की किताबे ली .इसी समय डाबर और वैद्यनाथ द्वारा प्रकाशित पत्रिकाओं का ग्राहक बनकर लेख लिखने और छपने के लिए लेख लिए .
इसी के कारण मेने अपनी स्नातक परीक्षा स्वर्ण पदक से पास किया .मेरिट के आधार पर नौकरी लगी और फिर सामाजिक ,धार्मिक मेडिकल ,आयुर्वेद की किताबों का शौक बढ़ा .उस समय साप्ताहिक हिंदुस्तान ,करावन अंग्रेजी मै और ग्रामीण क्षेत्र मै होने से पोस्ट ऑफिस द्वारा नई दुनिआ इंदौर का पाठक बना .इस प्रकार ग्रामीण क्षेत्र मै सात वर्ष रहने के बाद भी पुस्तकों और साहित्य से जुड़ा रहा .
वर्ष १९८५ मै शाकाहार परिषद् की स्थापना के साथ शाकाहार जाग्रति मासिक मुख पत्रिका की शुरुआत की .इसके कारण बहुत अधिक संपर्क बढ़ा और पुस्तकें खरीदी अनेक पत्र पत्रिकाओं का पाठक बना .उसके बाद पुस्तकें की ललक होने से मेने कई जैन धार्मिक ग्रंथों का संग्रह शुरू किया ,उसके पीछे तीन कारण थे पहला रूचि ,दूसरे ग्रंथों की उपलब्धता ,तीसरा पैसा होना .इस मनोभाव से खूब किताबे खरीदी और जहाँ भी जाता वहां किताबों की खोज रहती और खरीदता ..इस प्रकार धीरे धीरे मेरी निजी किताबों का बहुत बड़ा संग्रह होना भी शुरू हुआ .
वर्ष २०११ मै सेवा निवृत होने के बाद और निजी पुस्तकालय का रूप निजी मकान मै बनाया .इस समय मेरे पास २५०० से अधिक पुस्तकें और पत्रिकाओं का संग्रह और लगभग १००० से अधिक लेखो का संग्रह हैं .शाकाहार परिषद् के कारण सैकंडो पत्राचार का जखीरा भी हैं .
वर्ष २०१२ मै पत्नी का स्वर्गवास होने के कारण मन विचलित हुआ पर धार्मिक किताबों के अध्ययन से मेरा मनोबल बना रहा .इसी बीच मेरे द्वारा ,भक्ति की शक्ति ,आत्म कथा "आनद -कही अनकही " चार इमली ,चौपाल ,चतुर्भुज, चेतना का चातक, और सुहाना सफर और पचास कहानियां उपन्यास /पुस्तकें प्रकाशित हुई .यानी वर्ष २०१५ से २०२१ तक हर वर्ष .
मेरा जीवन मेरी पुस्तकें हैं .मेरा भाव यह हैं की मेरे प्राण मेरी लेखनी के साथ समाप्त हों ,मेरा जीवन विपरीत परिस्थतिओं मै बीता पर ज्ञान जो पुस्तकों के द्वारा प्राप्त किया उन्हें अपने जीवन मै उतारा.इससे आत्मबल बढ़ा और समता भाव से जीवन जिया .नकारातमक भाव से हमेशा दूर रहा .मध्य प्रदेश शासन की प्रशासनिक सेव् काँटों का ताज रहता हैं .३७ वर्ष मै २० ट्रांसफर होने से सरकारी खरच पर पूरा मध्य प्रदेश घूमने का मौका मिला ,पूरा नौकरी का कार्यकाल सामान बांधने और खोलने मै गया .पर निराशा को पास नहीं आने दिया .ये सब बातें मुझे पुस्तकें के अध्ययन ,मनन चिंतन के साथ जीवन मै उतारने से लाभ मिला .
पुस्तकें मेरे लिए धड़कन हैं .पुस्तकें का ज्ञान हमेशा प्रकाश देता हैं और अज्ञानता के तिमिर को भगाता हैं .मेरे को बहुत काम करना हैं मै प्रत्येक क्षण पढ़कर ,लिखकर अपना जीवन यापन करना चाहता हूँ .मेरे पास कभी कभी समय कम पड़ता हैं कारण विचारों की श्रंखला का तारतम्य ख़तम नहीं होता और एक प्रकार की पिपासा शांत करने इस कितब से उस किताब मै सन्दर्भ ढूढ़ना और फिर उस पर चिंतन करना और कैसे उससे अलग चिंतन प्रगट करू इसी मै पूरा दिन बीत जाता हैं .
घर से बाहर बहुत कम निकलना और कभी कभी मिलने वालों से कुछ नया चिंतन मिलता हैं .गन ग्रहण का भाव रखता हूँ जहाँ कुछ नया मिलता हैं उनको भावों मै उतारता हूँ
जीवन मै कभी कभी विचार आता हैं की क्या इतनी अधिक पुस्तकें लाभकारी होती हैं ,या चिंतन मनन के साथ पाचन होना चाहिए .कारण पुस्तके सुचना देती हैं पर चिंतन ज्ञान देता हैं .सुचना और ज्ञान दोनों ही /भी लाभकारी होते हैं और उन पर चलना बहुत जरुरी हैं .कारण गधे की पीठ पर मिटटी ढ़ो या सोना .उसे तो धोने से मतलब हैं .ऐसे ही यदि हमने पढ़ा लिखा और जीवन मै नहीं उतारा तो हम उस पत्थर के समान हैं जो दिन रात नदी मै रहता हैं उसके अंदर रंच मात्र भी अंदर पानी नहीं जाता और न पसीजता .
अंत समय मै ज्ञान मय भाव से ,समता भाव के साथ ईश्वर से भेट करू .
विद्यावाचस्पति डॉक्टर अरविन्द प्रेमचंद जैन ,संरक्षक शाकाहार परिषद् A2 /104 पेसिफिक ब्लू, नियर डी मार्ट ,होशंगाबाद रोड, भोपाल 462026 मोबाइल 09425006753
सी ३/५०४ कुंदन एस्टेट कांटे बस्ती पिम्पले सौदागर पिम्पले सौदागर पुणे 411027
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