पतझड़ में बहार

पतझड़ में बहार

प्रकृति और जीवन में कैसी समानता सी रहती है ।
प्रकृति फलती फूलती और फिर पतझड़ सी हो जाती है ।
फिर आती नयी कोपलें फिर फूलों से उपवन महक उठता ।
फूल फिर फल बनें तो नये स्वाद को मन मचल उठता ।
सर्दी गर्मी और बरसात मुख्य तीन ही तो ऋतुएं होती हैं ।
हेमन्त, बसन्त और शिशिर ये तो उप ऋतुएं होती हैं ।।
बचपन जवानी और बुढ़ापा जीवन के तीन चरण होते हैं ।
 बालपन,कौमार्य, और प्रौढ़ावस्था ये जीवन के उप चरण होते हैं ।।
यहीं चलता है खेल प्रकृति का जो सबसे निराला होता है ।
छल दंभ द्वेष पाखंड झूठ से जीवन में हरपल पाला पड़ता है ।
सत्य अहिंसा शांति प्रेम और सौहार्द में अपनाना पड़ता है ।।
देखें जब आजाद नजरिए से तो ये सब के अन्दर रहते हैं ।
जैसी जिसकी प्रकृति होती वैसे ही गुण दोष खींचा करते हैं ।।
पतझड़ का मौसम भी पल पल यही शिक्षा हमको देता है ।
बचपन के बाद जवानी और फिर बुढ़ापे का साया आ खटकता है ।
जैसे प्रकृति भी इक दिन पत्ते छोड़ डंठल सी रह जाती है ।
इक यह काया भी सब रिश्ते नाते तोड़ दूर गगन में चली जाती है ।।
बन्धु सखा मित्र सम्बंधी सब रोते-रोते रह जाते हैं ।
वृक्षों के पत्ते सूख वृक्ष भी सूखे काष्ट से रह जाते हैं ।
फिर मिलता है जीवन नया धरती पर हरियाली छा जाती है ।
बसन्त के आगमन पर ही प्रकृति पुष्प कलियों से छा जाती है ।।
ऐसे ही घर से गूंज उठी किलकारी नयी उम्मीदें आ जाती है ।
दुख दर्द सहकर जैसे ही जन्म हुआ घर में खुशियां छा जाती हैं ।।
फिर वही रीत जीवन की समय की चक्की घूम वहीं आ जाती है ।
जीवन की कहानी बार बार ऐसे ही तो दोहराई जाती है ।।
जन्म मृत्यु के बन्धन से आत्मा कभी आजाद नहीं हो पाती है ।।
बे मौसम पतझड़ से तो जीवन का सार ही खत्म हो जाता है ।।
गिरते पत्तों को देख देख कर कभी मन घबरा सा जाता है ।।
गीता रुपी अमृत पान कर फिर जीवन से मोह खत्म हो जाता है ।
जय हिन्द जय भारत वंदेमातरम
चन्द्र शेखर शर्मा मार्कण्डेय

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