मुसलमान, सिख, ईसाई भी हूं मैं,
पर क्या, हिन्दुस्तानी हूं मैं ?
एक क्षेत्र का वासी हूं मैं,
अपनी रीत का आदी हूं मैं,
परम्पराओं में बंटा पड़ा
संस्कारों का सिपाही हूं मैं,
पर क्या, हिन्दुस्तानी हूं मैं?
रिवाजों के अनेक गीत लिखे,
खान पान के ग्रंथ लिखे,
कभी कश्मीरी तो
कभी गुजराती हूं मैं,
पर क्या, हिन्दुस्तानी हूं मैं ?
पहनावों की होड़ लगी,
रीत रिवाजों की रेल सजी,
अपनी रीत का अभिमानी हूं मैं,
पर क्या, हिन्दुस्तानी हूं मैं?
भाषाओं की रेलमपेल लगी,
शब्दों में गुम कभी
इन्सानों की तकदीर लगी,
लफ्जों में गुम एक ग्यानी हूं मैं,
पर क्या, हिन्दुस्तानी हूं मैं?
मौलवी, ब्राह्मण और ठाकुर हूं मैं,
गुरूर में डूबा चक्र धारी हूं मैं,
जिसे समझ न पाया कोई शायद
धर्म, जाती का वो व्यापारी हूं मैं,
पर क्या हिन्दुस्तानी हूं मैं?
मेरी मिट्टी, मेरा अहम,
मेरे वतन पे लगा ग्रहण,
खड़ा रहुं शीश तान मैं
इंसानों की वो वाणी हूं मैं,
पर क्या, हिन्दुस्तानी हूं मैं?
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कविता