"पापा की परी"

"पापा की परी"
 मैं सुथार सुनील "कलम" कलम की कलम से एक आत्मिया कि एक पुष्टि करनेवाली बात कलम के साथ से प्रस्तुत करता हूं।
आज के वक्त में हमने देखा होगा कि पापा की परी शब्द कहते सुना होगा।वो सही बात है पर ये हकीकत की तरह इस की पृष्टी मै एक ऐसी बात कहने जा रहा हूं वो महद अंश तक पुष्टि करती है कि सही में 'बेटी परी है'।
"तेरी मासुम मुश्कान, हर दिन खुशहाल कर जाती है
तेरी ये खामोशी, मेरे दिल को बहुत दर्द पहुंचाती है।"
                        एक छोटे से  परिवारकी ये बात है। वो परिवार अमीर तो न था मगर परिवार में खुशियां थी। वो ऐसा परिवार की सब साथ रहते, दोस्त की तरह खुशहाल जिंदगी जी रहे थे। खुशी में दोगुनी खुशी के लिए एक दिव्य उजाला करने के लिए परी का जन्म हुआ। छोटी सी गुड़िया थी बहुत प्यारी थी खुशियों का माहौल था सब बच्ची को अच्छी तरह से रखते। वो बी जैसे बच्ची के साथ मिलजुल गई थी।जब वो मुस्कुराती थी तब सबके चेहरे पे मुस्कान आती थी। और उसके पापा का तो उसे देखे बिना दिन भी साल जैसा लगता था। करीब पांच महीने कि होगी फिर भी ऐसा लगता था कि वो सब कुछ समजती है, शाम को पापा का इंतज़ार करती रहती और देखते ही जैसे पापा को बुला रही है ऐसे उछल कूद करती थी। और गोद में लेकर पापा बैठते तब पापा की पूरे दिन कि थकान दूर हो जाती थी और शाम होते हुए भी जैसे सुबह की किरणों से कलिया खिलती है ऐसी प्यारी मुस्कान छा जाती थी।इस तरह से ये परिवार खुशियों से रहता था। और बेटी से बेहद खुश था।
                        करीब कुछ दिन बीत ते ही न जाने मौसम बदला ओर पतझड़ का मौसम शुरू हुआ हो  इस तरह वक्त ने रुख बदला,और इस परिवारकी खुशियों को ग्रहण लग गया। और  दुखद कहर का वक्त शुरू हो गया। किसी भी इंसान के पास पैसा - रुपए होते हुए भी वो खुशियां नहीं खरीद सकता। इस तरह यह परिवार भी बहुत मशक्त के बाद भी कमियाब नहीं हो पाया। जैसे पुराने लोग कहते है ' कठिन नज़र' लग गई है। वो कष्ट था की परी बीमार हो गई। कैसे बीमार हुई, क्या बीमारी थी , वो किसी को कुछ पता नहीं चला। सभी डाक्टर की सलाह ली लेकिन बिमारियों का  कुछ पता न कर पाएं।  परी के पापा कभी लड़के के कभी कपड़े नई बदले थे, पर उस परी के लिए दिन - रात अस्पताल में खड़े रहे , साफ सफाई का भी काम किया, पर सभी व्यर्थ गया। इस अस्पताल से उस अस्पताल गए। कई आस्था - मानता रखी। मतलब उसके लिए बहुत कुछ, जो हो सकता था वो सबकुछ किया, फिर भी ...............। वो दिव्य आत्मा में लीन हो गई। कई हप्ते , दिन रात संभालने के बावजूद भी वो उसे बचा नहीं पाए।
                          जैसे वक्त के साथ ईश्वर ने भी मुंह मोड़ लिया। वो खुशी के कुछ पल के लिए ही आयी थी। पापा की सदमा लगा और वो रो - रो के बुरा हाल हो गया। पूरे परिवार में मातम सा छा गया। और वो दिव्या की  याद को सपनो कि तरह संजोने लगे, सब सपने चकना चूर हो गए । उस परी का नाम दिव्या था और आज भी पापा याद करते है तब आंसू आ जाते है। उसको भुला नहीं पाते। पापा को सभी बच्चियों को देखते है तब अपनी दिव्या की याद आती है। कई साल बाद भी वो आज भी याद दिलमें घर कर गई है। उसे भुला नहीं पाते। जब जब याद आती है, तब तब मासूमियत छा जाती है। तब मेरे ही शेर याद आते है।
"जब जब याद करता हूं,यादोकी बाहर आ जाती है
पापा की पारी, लाडो, तेरी याद बहुत सताती है।"
ये लघुकथा सत्यता के नजदीक है और ये मेरी मौलिक लेख है, ये में पुष्टि करता हूं।
परी का पापा
सुथार सुनील एच. ( कलम )
                                                                                                               सुथार सुनिल एच. "कलम"
                                                                                                              एम.पी.सी.सी. भाडोत्रा, कम्प्यूटर शिक्षक
गाव- रानोल , ता. दांतीवाडा,बनासकांठा, गुजरात
                                                                                                             SutharSunil01@gmail.com
Mo- 9979363553

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