धूप छांव
काव्य संग्रह का नाम :धूप- छांव
रचयिता: उदय राज वर्मा 'उदय'
प्रकाशक: प्रिन्सेप्स प्रकाशन, बिलासपुर (छत्तीसगढ़)
पहला संस्करण: 2020
पृष्ठ :111
मूल्य:160/-पेपर बैक
कुल कविताएं: 94
युवा कवि श्री उदय राज वर्मा 'उदय' जी की पहली कृति है यानी पहली ही गेंद पर छक्का! फिर भी उदय जी कहते हैं मैं आइना हूं यारों/मैं कमियां बताऊंगा/सुनकर उसे दूर कर लेना/गुस्से में आकर तोड़ मत देना...।
किसी भी साहित्यिक कृति का सीधा सरोकार समाज से होता है। समाज यानी समाज में रह रहे तमाम लोगों से। यह बात तो अब तय है कि आज मानवीय संवेदना मानवतर नहीं रह गई है। मानत्व का भारी अभाव हो चुका है। समाज और घर परिवार में भी सहयोग और भाईचारे की भावना का तेजी से ह्रास हो रहा है। इसलिए स्वार्थ का रंग दिनोंदिन चोखा होते जा रहा है। ऐसे में कवि, कथाकार और कलमकार का धर्म मानव समाज के लिए हासिय पर नहीं रह सकता। उदय जी भी अपनी कविताओं के माध्यम से असंवेदना से ग्रस्त मानव को आईना दिखलाने का पुनीत कार्य कर रहे हैं.... और इस तरह कवि धर्म का निष्ठा पूर्वक निर्वहन कर रहे हैं ।"आजादी दिलाई" कविता में कवि कहता है... 'कृष्ण ने मामा को मार कर/ संसार को मुक्ति दिलाई/ कुछ करो हे जगन्नाथ/ भारत से भ्रष्टाचार दूर भाग जाई..." देश के विकास में सबसे बड़ा बाधा है भ्रष्टाचार। सरकारी बजट का लाभ सर जमीन पर कितना पहुंच पाता है यह बात किसी से छुपी नहीं है। सरकारी तंत्र भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे हुए हैं यह भी कहने की जरूरत नहीं है। यह भ्रष्टाचार ही रावण है।
'शिव' कविता में भी कवि की चिंता कविता की पंक्तियों में दिखाई दे रही है.."विष पीकर समाज को बचाया /तत्पश्चात शिव की उपाधि पाया/ लोग यहां स्वार्थरत हैं/ दूसरे को विष पिलाने में मस्त हैं.. " इस कविता का संदेश स्पष्ट है कि समाज की मर्यादा को अक्षुण्ण रखने के लिए इसमें व्याप्त गंदगी को मिटाना ही होगा।
'दर्पण' में कविता बिना किसी लाग लपेट के मुखरित है..'तू ही सच्चा साथी है /जो मेरी अच्छाइयों के साथ /मेरी कमियों को/ नि:संकोच बताता है /जब भी तेरे पास होता हूं /मेरी कमियों को बिना डर के/ बिना लाग लपेट के /बार-बार मुझे टोकता है/.. कविता है क्या? एक आईना ही तो है। कहा भी गया है- 'साहित्य समाज का दर्पण होता है।'
प्रकृति के संरक्षण पर भी कवि की पैनी निगाह है। तरु
कविता में कवि कहता है
' जिसकी छाया में बैठने से पल भर में /सारे कष्ट दूर हो जाते/ जिसके फल और लकड़ी के लिए/ सुरों का भी मन ललचाए /ऐसे अपने परम हितेषी मित्रों को /स्वार्थ बस हम विनाश के मार्ग दिखाएं..'
कुर्सी की महिमा आज के संदर्भ में बिल्कुल सत्य है।'कुर्सी'कविता में कवि करता है- '
कुर्सी की महिमा न्यारी है/ हो गई जिसकी कुर्सी से यारी है/वो इंसानियत भूल गया...'
आज कुर्सी का अर्थ है राजगद्दी। व्यंग्यात्मक कविता है।
आज रिश्ते नाते निभाने में हम कंजूसी करते हैं। यहां तक कि जिस पिता के कंधे पर चढ़कर बच्चे आकाश देखते हैं बुढ़ापे में उन्हें बेसहारा छोड़ दिया जाता है। पिता को पुत्र का सहारा नहीं मिल पाता। इसका एहसास ' पापा ' कविता में देखने को मिलता है। जिनके कंधे पर चढ़कर/ देखे हमने मेले/ आज बुढ़ापे में हैं वो/ कितने अकेले...'
'इंसान' कविता इंसान शब्द पर सवाल खड़ी करती है। हमें सोचने पर मजबूर करती है कि हम इंसान किसे कहें? जिसमें मानवीय संवेदना नहीं हो उसे इंसान नहीं कहा जा सकता न!
'प्रकृति 'कविता पाठक को सोचने के लिए मजबूर कर देगी। इसका फलाफल प्रकृति को नुकसान नहीं पहुंचाने के लिए प्रेरित करेगा।
'पराया धन' कविता काफी मार्मिक है। इस धन को बड़े जतन से मां-बाप पाल पोस कर बड़ा करते हैं लेकिन शादी का समय आता है तो बेटे वाले विवेकशील प्राणी हो जाते हैं।
'स्वप्न' कविता के माध्यम से कवि विश्व के धर्मांध जनमानस की बखिया उधेड़ रहा है।
इसके शब्द और भाव हमें तम से प्रकाश की ओर लाता है।
'जनता का रोष ' मैं कवि स्वयं आक्रोशित हो गया है। शब्द आग बरसा रहे हैं। हो भी क्यों नहीं? जब जनप्रतिनिधि जन भक्षक बन तो जन क्या करेगा?
'चुनावी होली 'एक व्यंग गीत है। और होली के गीत से हम सभी भली-भांति वाकिफ हैं।
होली में सब माफ। लेकिन इस गीत ने भ्रष्ट जनों को नंगा कर कर दिया है।
'देहात और शहर' में श्रेष्ठता की बात सामने आ ही जाती है। शहर में विकास की ब्यार है। सभी फैसले शहर में ही लिए जाते हैं लेकिन जब शुद्धता की बात आती है तो गांव के आगे शहर कभी टिका नहीं है और टिकेगा भी नहीं। यही है इस कविता में।
कवि की दृष्टि सूक्ष्मता से समकालीन विषयों पर पड़ताल करती हुई मानव धर्म पर स्थिर हो जाती है जिसका सीधा सरोकार समाज से है।
इनकी शेष कविताएं भी मन मस्तिष्क के कोमल तंतुओं का स्पर्श कर पाठक को सोचने और कुछ शुभ करने के लिए प्रेरित करती है।
लेखक की पहली करती है। साहित्य जगत को इनसे काफी उम्मीदें हैं।
---उमाकांत भारती, संपादक"पलाश"
काव्य संग्रह का नाम :धूप- छांव
रचयिता: उदय राज वर्मा 'उदय'
प्रकाशक: प्रिन्सेप्स प्रकाशन, बिलासपुर (छत्तीसगढ़)
पहला संस्करण: 2020
पृष्ठ :111
मूल्य:160/-पेपर बैक
कुल कविताएं: 94
युवा कवि श्री उदय राज वर्मा 'उदय' जी की पहली कृति है यानी पहली ही गेंद पर छक्का! फिर भी उदय जी कहते हैं मैं आइना हूं यारों/मैं कमियां बताऊंगा/सुनकर उसे दूर कर लेना/गुस्से में आकर तोड़ मत देना...।
किसी भी साहित्यिक कृति का सीधा सरोकार समाज से होता है। समाज यानी समाज में रह रहे तमाम लोगों से। यह बात तो अब तय है कि आज मानवीय संवेदना मानवतर नहीं रह गई है। मानत्व का भारी अभाव हो चुका है। समाज और घर परिवार में भी सहयोग और भाईचारे की भावना का तेजी से ह्रास हो रहा है। इसलिए स्वार्थ का रंग दिनोंदिन चोखा होते जा रहा है। ऐसे में कवि, कथाकार और कलमकार का धर्म मानव समाज के लिए हासिय पर नहीं रह सकता। उदय जी भी अपनी कविताओं के माध्यम से असंवेदना से ग्रस्त मानव को आईना दिखलाने का पुनीत कार्य कर रहे हैं.... और इस तरह कवि धर्म का निष्ठा पूर्वक निर्वहन कर रहे हैं ।"आजादी दिलाई" कविता में कवि कहता है... 'कृष्ण ने मामा को मार कर/ संसार को मुक्ति दिलाई/ कुछ करो हे जगन्नाथ/ भारत से भ्रष्टाचार दूर भाग जाई..." देश के विकास में सबसे बड़ा बाधा है भ्रष्टाचार। सरकारी बजट का लाभ सर जमीन पर कितना पहुंच पाता है यह बात किसी से छुपी नहीं है। सरकारी तंत्र भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे हुए हैं यह भी कहने की जरूरत नहीं है। यह भ्रष्टाचार ही रावण है।
'शिव' कविता में भी कवि की चिंता कविता की पंक्तियों में दिखाई दे रही है.."विष पीकर समाज को बचाया /तत्पश्चात शिव की उपाधि पाया/ लोग यहां स्वार्थरत हैं/ दूसरे को विष पिलाने में मस्त हैं.. " इस कविता का संदेश स्पष्ट है कि समाज की मर्यादा को अक्षुण्ण रखने के लिए इसमें व्याप्त गंदगी को मिटाना ही होगा।
'दर्पण' में कविता बिना किसी लाग लपेट के मुखरित है..'तू ही सच्चा साथी है /जो मेरी अच्छाइयों के साथ /मेरी कमियों को/ नि:संकोच बताता है /जब भी तेरे पास होता हूं /मेरी कमियों को बिना डर के/ बिना लाग लपेट के /बार-बार मुझे टोकता है/.. कविता है क्या? एक आईना ही तो है। कहा भी गया है- 'साहित्य समाज का दर्पण होता है।'
प्रकृति के संरक्षण पर भी कवि की पैनी निगाह है। तरु
कविता में कवि कहता है
' जिसकी छाया में बैठने से पल भर में /सारे कष्ट दूर हो जाते/ जिसके फल और लकड़ी के लिए/ सुरों का भी मन ललचाए /ऐसे अपने परम हितेषी मित्रों को /स्वार्थ बस हम विनाश के मार्ग दिखाएं..'
कुर्सी की महिमा आज के संदर्भ में बिल्कुल सत्य है।'कुर्सी'कविता में कवि करता है- '
कुर्सी की महिमा न्यारी है/ हो गई जिसकी कुर्सी से यारी है/वो इंसानियत भूल गया...'
आज कुर्सी का अर्थ है राजगद्दी। व्यंग्यात्मक कविता है।
आज रिश्ते नाते निभाने में हम कंजूसी करते हैं। यहां तक कि जिस पिता के कंधे पर चढ़कर बच्चे आकाश देखते हैं बुढ़ापे में उन्हें बेसहारा छोड़ दिया जाता है। पिता को पुत्र का सहारा नहीं मिल पाता। इसका एहसास ' पापा ' कविता में देखने को मिलता है। जिनके कंधे पर चढ़कर/ देखे हमने मेले/ आज बुढ़ापे में हैं वो/ कितने अकेले...'
'इंसान' कविता इंसान शब्द पर सवाल खड़ी करती है। हमें सोचने पर मजबूर करती है कि हम इंसान किसे कहें? जिसमें मानवीय संवेदना नहीं हो उसे इंसान नहीं कहा जा सकता न!
'प्रकृति 'कविता पाठक को सोचने के लिए मजबूर कर देगी। इसका फलाफल प्रकृति को नुकसान नहीं पहुंचाने के लिए प्रेरित करेगा।
'पराया धन' कविता काफी मार्मिक है। इस धन को बड़े जतन से मां-बाप पाल पोस कर बड़ा करते हैं लेकिन शादी का समय आता है तो बेटे वाले विवेकशील प्राणी हो जाते हैं।
'स्वप्न' कविता के माध्यम से कवि विश्व के धर्मांध जनमानस की बखिया उधेड़ रहा है।
इसके शब्द और भाव हमें तम से प्रकाश की ओर लाता है।
'जनता का रोष ' मैं कवि स्वयं आक्रोशित हो गया है। शब्द आग बरसा रहे हैं। हो भी क्यों नहीं? जब जनप्रतिनिधि जन भक्षक बन तो जन क्या करेगा?
'चुनावी होली 'एक व्यंग गीत है। और होली के गीत से हम सभी भली-भांति वाकिफ हैं।
होली में सब माफ। लेकिन इस गीत ने भ्रष्ट जनों को नंगा कर कर दिया है।
'देहात और शहर' में श्रेष्ठता की बात सामने आ ही जाती है। शहर में विकास की ब्यार है। सभी फैसले शहर में ही लिए जाते हैं लेकिन जब शुद्धता की बात आती है तो गांव के आगे शहर कभी टिका नहीं है और टिकेगा भी नहीं। यही है इस कविता में।
कवि की दृष्टि सूक्ष्मता से समकालीन विषयों पर पड़ताल करती हुई मानव धर्म पर स्थिर हो जाती है जिसका सीधा सरोकार समाज से है।
इनकी शेष कविताएं भी मन मस्तिष्क के कोमल तंतुओं का स्पर्श कर पाठक को सोचने और कुछ शुभ करने के लिए प्रेरित करती है।
लेखक की पहली करती है। साहित्य जगत को इनसे काफी उम्मीदें हैं।
---उमाकांत भारती, संपादक"पलाश"
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